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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
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थीं । पाणिनि ने उनके लोकप्रसिद्ध होने से उन्हें छोड़ दिया । इस विषय को पाणिनि ने स्वयं निम्न सूत्र से दर्शाया है
कालोपसर्जनने च तुल्यम् । १।२।५७॥
इसका भाव यह है कि काल और उपसर्जन संज्ञाएं शिष्य हैं, अर्थ के अन्य = लोक के प्रमाण होने से । अर्थात् -- काल की विविध ५ संज्ञानों के अर्थ लोक-विज्ञात होने से शास्त्र में परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है |
इसके अतिरिक्त पाणिनीय तन्त्र में पूर्व व्याकरणों की अपेक्षा कई सूत्र अधिक हैं, यह हम पूर्व काशकृत्स्न के प्रकरण में लिख चुके हैं । जिन सूत्रों पर महाभाष्यकार ने अनर्थक्य की आशङ्का उठाकर उन १० की प्रयत्नपूर्वक आवश्यकता दर्शाई है, वे सूत्र निश्चय ही पणिनि के स्वोपज्ञ हैं, उससे पूर्वकालिक तन्त्रों में वे सूत्र नहीं थे । '
पाणिनीय तन्त्र पूर्व तन्त्रों से संक्षिप्त
हमारे भारतीय वाङमय के प्रत्येक क्षेत्र में देखा जाता है कि उत्तरोत्तर ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्व - पूर्व ग्रन्थ अधिक विस्तृत थे, उनका १५ उत्तरोत्तर संक्षेप हुआ । व्याकरण के वाङ्मय में भी यही नियम उपलब्ध होता है । पाणिनीय व्याकरण के संक्षिप्त होने में निम्न प्रमाण हैं
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१. पाणिनि ने 'प्रधानप्रत्ययार्थवचनमर्थस्यान्यप्रमाणत्वात् ' कालोपसर्जने च तुल्यम्' इन सूत्रों से दर्शाया है कि उसने अपने ग्रन्थ २० में प्रधान, प्रत्ययार्थवचन, भूत, भविष्यत्, अनद्यतन आदि काल तथा उपसर्जन आदि अनेक विषयों की परिभाषाएं नहीं रचीं । प्राचीन व्याकरणों में इनका उल्लेख था, परन्तु पाणिनि ने इनके लोकप्रसिद्ध होने से इन्हें छोड़ दिया । यही पाणिनीय तन्त्र की पूर्वतन्त्रों से उत्कृष्टता थी, यह हम ऊपर दर्शा चुके हैं ।
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२. माघवीय धातुवृत्ति में 'क्षिणोति ऋणोणि तृणोति' आदि प्रयोगों में धातु की उपधा को गुण का निषेध करने के लिये आशिल
१. पूर्व पृष्ठ १२३, १२४ ।
२. भ्रष्टा० १।२।५६ ॥
३. भ्रष्टा० १।१।५७॥