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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
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यद्यपि राजशेखर ने पाणिनीयों के तद्धितमूढत्व में कोई कारण उपस्थापित नहीं किया, तथापि प्राचीन वाङ्मय के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पाणिनि का तद्धित प्रकरण यद्यपि दो अध्याय घेरे हुए है, तथापि वह अत्यन्त संक्षिप्त है । उस के द्वारा प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में प्रयुक्त सहस्रों तद्धित प्रयोग गतार्थ नहीं होते ।' ५ अर्थात् पाणिनि ने तद्धित प्रकरण में प्रत्यधिक संक्षेप किया है ।
५. महाभारत का टीकाकार देवबोध माहेन्द्र = ऐन्द्र व्याकरण को समुद्र से उपमा देता है, और पाणिनीय तन्त्र को गोष्पद से । * अर्थात् ऐन्द्र तन्त्र की अपेक्षा पाणिनीय तन्त्र अत्यन्त संक्षिप्त है ।
६. पाणिनीय तन्त्र के सूत्रों में लगभग १०० ऐसे प्रयोग हैं, जो १० पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते । यथा - 'जनिकर्तुः' तत्प्रयोजक:'३ पुराण:, सर्वनाम और ग्रन्थवाची ब्राह्मण शब्द । अत एव महाभाष्यकार ने पाणिनि के अनेक सूत्रों में छान्दस वा सौत्र कार्य माना है । इसी प्रकार पाणिनि के जाम्बवतीविजय काव्य में भी बहुत से प्रयोग ऐसे है. जो उसके व्याकरण के अनुसार साधु नहीं हैं । इसका १५ कारण केवल यही है कि पाणिनि ने इन ग्रन्थों में उस समय की व्यवहृत लोकभाषा को प्रयोग किया है, परन्तु उसका व्याकरण तत्कालिक भाषा का संक्षिप्त व्याकरण है । इसीलिये ये प्रयोग उसके व्याकरण से सिद्ध नहीं होते ।
इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि पाणिनि ने केवल प्राचीन व्याक - २० रणों का संक्षेप किया है, उनमें उसकी अपनी ऊहा कुछ नहीं । हम पूर्व लिख चुके हैं कि पाणिनि ने अपने व्याकरण में अनेक नये सूत्र रचे हैं, जो प्राचीन व्याकरणों में नहीं थे । वे उसकी सूक्ष्म पर्यवेक्षणबुद्धि के द्योतक हैं । लाघव करने के कारण कुछ नियमों का छूट जाना स्वाभाविक है । उसे दोष मानना स्व-प्रज्ञान को द्योतित करना है ।
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१. तुलना के लिये महाभारत के पाण्डवेय प्रादि तद्धित प्रयोग तथा निरुक्त के 'दण्ड्यः .. दण्डमर्हतीति वा दण्डेन सम्पद्यत इति वा' (२/२) आदि द्वितार्थक निर्वचन देखे जा सकते हैं । २. अगले पृष्ठ में उद्ध्रियमाण श्लोक । ३. पूर्व पृष्ठ ३५, सन्दर्भ ८
।
४. पूर्व पृष्ठ ३५ की टि० ६ ।
५. महाभाष्य १|१|१|| १ | ४ | ३ || ३ |४| ६०, ६४॥ ६. पूर्व पृष्ठ १२३-१२४, सन्दर्भ १ ।
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