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. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इस से यह भी सिद्ध है जो पद पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते, उन्हें केवल अपाणिनीय होने के कारण अपशब्द नहीं कह सकते । प्राचीन आर्ष वाङमय में सहस्रशः ऐसे प्रयोग हैं, जो पाणिनीय
व्याकरण से सिद्ध नहीं होते।' अत एव महाभारत के टीकाकार ५ देवबोध ने लिखा है
न दृष्ट इति वैयासे शब्दे मा संशयं कृथाः । प्रज्ञैरज्ञातमित्येवं पदं नहि न विद्यते ॥ ७ ॥ यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्यासो व्याकरणार्णवात् ।
पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ॥ ८॥ १० महाभाष्याकार ने भी अष्टाध्यायो का प्रयोजन 'शिष्ट-प्रयोगों के
ज्ञान का मार्ग-प्रदर्शन कराना है, ऐसा लिखा हैं -शिष्टपरिज्ञानार्थी अष्टाध्यायी ६।३।१०६।। इतना ही नहीं सुधाकर नामक वैयाकरण का कहना है कि यदि लक्षण शिष्ट-प्रयोगों का अनुगमन नहीं करता,
तो वह लक्षण ही नहीं है-'शिष्टप्रयोगोपगोतनाम्नः शब्दराशेरनाश्रयणे १५ प्रधानविरोधाल्लक्षणस्यालक्षणत्वं माभूत्।'देवम्, पृ० ८५,हमारा सं० ।
अष्टाध्यायी संहितापाठ में रची थी पानिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी संहितापाठ में रची थी। महाभाष्य १ । १ । ५० में लिखा है
यथा पुनरियमन्तरतनिर्वृत्तिः, सा कि प्रकृतितो भवति२. स्थानिन्यन्तरतमे षष्ठीति । आहोस्विदादेशतः-स्थाने प्राप्यमाणा
नामन्तरतम प्रादेशो भवतीति । कुतः पुनरियं विचारणा ? उभयथा हि तुल्या संहिता 'स्थानेन्तरतम उरण रपरः' इति ।।
महाभाष्यकार ने अन्यत्र भी कई स्थानों में प्राचीन वृत्तिकारों के सूत्रविच्छेद को प्रामाणिक न मानकर नये-नये सूत्रविच्छेद दर्शाये हैं । २५ यथा
नैवं विज्ञायते-कञ्क्वरपो यत्रश्चेति । कथं तहि ? कञ्क्वरपोऽयश्चेति ।
१. देखो पूर्व पृष्ठ २७-५६ । २. महाभारत टीका के प्रारम्भ में । ३. महाभाष्य ४॥ १।१६ ॥