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________________ २२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. मनुस्मृति का व्याख्याता मेधातिथि इस को पाणिनीय सूत्र मानता है। वह लिखता है पौरुषेयेष्वपि ग्रन्थेषु नैव सर्वेषु प्रयोजनाभिधानमाद्रियते । तथा हि भगवान् पाणिनिरनुक्त्वैव प्रयोजनम् 'अथ शब्दानुशासनम्' इति ५ सूत्रसन्दर्भमारभते। अर्थात-सब पौरुषेय ग्रन्थों में भी ग्रन्थ के प्रयोजन का कथन नहीं होता। भगवान् पाणिनि ने अपने शास्त्र का प्रयोजन विना कहे 'अथ शब्दानुशासनम्' इत्यादि सूत्रसमूह का प्रारम्भ किया है। ५. न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि काशिका ३।४।१६ की व्याख्या में १० लिखता है शब्दानुशासनप्रस्तावादेव हि शब्दस्येति सिद्धे शब्दग्रहणं यत्र शब्दपरो निर्देशस्तत्र स्वं रूपं गृह्यते, नार्थपरनिर्देश इति ज्ञापनार्थम् ।। __अर्थात्-शब्दानुशासन के प्रस्ताव से ही शब्द का संबन्ध सिद्ध है। पुनः ‘स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा सूत्र में शब्दग्रहण इस बात का १५ ज्ञापक है कि जहां शब्दप्रधान निर्देश होता है, वहीं रूपग्रहण होता है, अर्थप्रधान में नहीं। • यहां न्यासकार को 'शब्दानुशासनप्रस्ताव' शब्द से 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र ही अभिप्रेत है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र पाणिनीय २० ही है । अत एव स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने अष्टाध्यायीभाष्य के प्रारम्भ में लिखा है इदं सूत्र पाणिनीयमेव । प्राचीनलिखितपुस्तकेषु प्रादाविवमेवास्ति। दृश्यन्ते च सर्वग्वार्षेषु ग्रन्थेष्वादौ प्रतिज्ञासूत्राणीदृशानि । कैयट आदि ग्रन्थकारों को 'वृद्धिरादेच्" सूत्र के 'मङ्गलार्थ वृद्धि२५ शब्दमादितः प्रयुङ्क्ते' इस महाभाष्य के वचन से भ्रान्ति हुई है। और इसी के आधार पर अर्वाचीन वैयाकरण प्रत्याहारसूत्रों को भी अपाणिनीय मानते हैं। १. मनुस्मृति टीका १११॥ पृष्ठ १। २. न्यास भाग १, पृष्ठ ७५५ । ३. अष्टा० १११॥६॥ ३० ४. द्र०-पृष्ठ २२७, टि. १। ५. अष्टा० ॥११॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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