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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
व्यक्त होता है कि पाणिनि के काल में उपनिषदों पर व्याख्यान ग्रन्थों की रचना भी प्रारम्भ हो गई थी,' अथवा वे व्याख्यानयोग्य समझी जाती थीं। सम्प्रति उपलभ्यमान ईश आदि मुख्य १५ उपनिषदें संहिता ब्राह्मण और प्रारण्यक ग्रन्थों के हो विशिष्टांश हैं । अतः ये पाणिनि को अवश्य ज्ञात रही होंगी । अष्टाध्यायी ४।३।१२६ में छन्दोग शब्द से आम्नाय अर्थ में छान्दोग्य पद सिद्ध होता है । छान्दोग्य उपनिषद इसी छान्दोग्य प्रान्नाय से सम्बन्ध रखती है। एक पैङ्गलोपनिषद्, जिसका प्राचार्य पिङ्गल से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है, मिलती है, परन्तु यह नवीन रचना है ।
५. कल्पसूत्र-इन में श्रौत, गृह्य और धर्म सम्बन्धी विविध सूत्रों का समावेश होता है। शुल्बसूत्र श्रौतसूत्रों के हि परिशिष्ट हैं । अष्टाध्यायी के 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु सूत्र में साक्षात् कल्पसूत्रों का निर्देश है। पाणिनि ने इसी सूत्र से उनके प्राचीन और
नवीन दो भेद भी दर्शाए हैं । काशिकाकार ने इसी सूत्र पर पुराण १५ कल्पों में पैङ्गी तथा 'पारुणपराजी' को उद्घत किया, और अर्वा
चीनों में 'प्राश्मरथ' को। काशिका का मुद्रित 'पारुणपराजः' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। सम्भव है यहां 'पारुणपराशरी' पाठ हो भट्ट कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक अ० १, पा० २, अधि०६ में लिखा
है-'अरुणपराशरशाखाब्राह्मणस्य कल्परूपत्वात्' । 'पैङ्गली कल्प' का २० निर्देश जैन शाकटायन ३।१७४ की अमोघा और चिन्तामणि वृत्ति में
है। बौबायन श्रौत २७ में एक पैङ्गलायनि ब्राह्मण उदधृत है, क्या पैङ्गलीकल्प का उसके साथ सम्बन्ध है, वा पैङ्गीकल्प का अपपाठ है ? पाणिनि ने 'काश्यपकौशिकाभ्यामृषिभ्यां णिनि:' सूत्र में 'काश्यप'
और 'कौशिक' ग्रन्थों का उल्लेख किया है । कात्यायन के 'काश्यप२५ कौशिकग्रहणं कल्पे नियमार्थम् कार्तिक से प्रतीत होता है कि उक्त
सत्र में काश्यप ओर कौशिक कल्पों का निर्देश है । कौशिक कल्प पाथवर्ण कौशिकसूत्र प्रतीत होता है । गृहपति शौनक पाणिनि का समकालिक वा किंचित् पौर्वकालिक है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।
१. यहां 'तस्य व्याख्यान:' अथं की अनुवृत्ति है। २. अष्टा० ४।३।१०५॥
३. अष्टा० ४।३३१०३॥ ४. महाभाष्य ४।२॥६६॥
५. पूर्व पृष्ठ २१८-२१६ ।