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श्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ् मय
एवं तर्ह्यनुब्राह्मणमेतत् महाकौषीतकोदाहृतं कल्पसूत्रकारेणाध्यायत्रयम् ।
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इन उदाहरणों से विदित होता है कि विनियोजक विधिरूप ब्राह्मणवचनों के व्याख्यानरूप जो प्रर्थवादादिरूप वचन हैं उन्हें मुख्य विधिरूप ब्राह्मणों के व्याख्यानरूप वचन होने से अनुब्राह्मण कहते हैं । ५ इस से अनुब्राह्मण का स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर भी पाणिनी के अनु-ब्राह्मणादिनि: ( श्रष्टा० ४।२।२२ ) सूत्र से तथा उसकी व्याख्यानों से अनुब्राह्मणसंज्ञक किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की प्रतीति होती है ।
सत्यव्रत सामश्रमी ने निरुक्तालोचन में लिखा है -
ताण्ड्यांशभूतानि ताण्ड्यपरिशिष्टानि वा अनुब्राह्मणानि वा १० ऽपराणि सप्ताधीयन्ते । पृष्ठ १६७ ।
इस लेख के अनुसार सत्यव्रत सामश्रमी के मत में सामवेद के आर्षेय, मन्त्र, वंश आदि सात ब्राह्मण अनुब्राह्मण हैं । हमें इन ब्राह्मणों के लिए अनुब्राह्मण शब्द का कहीं प्रयोग उपलब्ध नहीं हुआ । अतः हमारे विचार में सत्यव्रत सामश्रमी का लेख कल्पनामात्र है ।
वह भी सम्भव है कि पाणिनीयसूत्र पठित अनुब्राह्मण शब्द आरण्यक ग्रन्थों का वाचक हो, क्योंकि उसमें कर्मकाण्ड और ब्रह्मकाण्ड दोनों का सम्मिश्रण है और उनकी रचनाशैली भी ब्राह्मणग्रन्थानुसारिणी है। प्रारण्यक ग्रन्थों के प्रवक्ता भी प्रायः वे ही ऋषि हैं, जो तत्तत् शाखा वा ब्राह्मणप्रन्थों के प्रवक्ता हैं । बृहदारण्यक आदि कई आर- २० ण्यक साक्षात् ब्राह्मणग्रन्थों के अवयव हैं । अतः पाणिनि के ग्रन्थ में आरण्यक ग्रन्थों का साक्षात् निर्दश न होने पर भी वे पाणिनि द्वारा ज्ञात अवश्य थे । यह भी सम्भव है कि अनुब्राह्मण नामक कोई विशिष्ट ग्रन्थ रहा हो ।
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४. उपनिषद् - इस शब्द का अर्थ है - समीप बैठना । इसी प्रर्थ २५ को लेकर पाणिनि ने 'जीविकोपनिषदावोपम्ये" सूत्र में उपमार्थ में उपनिषत् शब्द का व्यवहार किया है । ग्रन्थवाची उपनिषत् शब्द का उल्लेख ऋगयनादिगण में मिलता है । इस गणपाठ से यह भी
१. अष्टा० १२४ ७६ ॥
२. द्र०-- कौटिल्य अर्थशास्त्र का प्रोपनिषद प्रकरण |
३. श्रष्टा० ४ | ३ |७३॥
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