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प्रर्थवादादियुक्तं कर्मविधानं कल्पब्राह्मणम् ।
अर्थात् - ब्राह्मण दो प्रकार के हैं - कर्मब्राह्मण और कल्पब्राह्मण । कर्मब्राह्मण केवल कर्मों का विधान करते हैं, मन्त्रों का विनियोग करते हैं । प्रशंसा निन्दा नहीं करते ।... अर्थवादादि से युक्त कर्म विधायक ५. कल्पब्राह्मण कहाता है ।
सायणाचार्य ने भी तै० सं० १।८।१ के आरम्भ में लिखा है-.
श्रष्टमे मन्त्रकाण्डस्थे कर्मणां बहुलत्वतः । तत्तत्संनिधये प्रोक्ता मन्त्रा विधिपुरःसराः || ४ || अनूद्य तान् विधीन् प्रर्थवादो ब्राह्मण ईरितः । सम्प्रदाय विदोऽतोऽत्र ब्राह्मणद्वयमूचिरे ||५|| ब्राह्मणं मन्त्रकाण्डस्ध विधिजातमितीरितम् । धनुब्राह्मणमन्यत्तु कथितं सार्थवादकम् || ६ ||
संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
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इनका भाव यह है कि अष्टम मन्त्रकाण्ड में कर्मों की बहुलता है । उस उस कर्म की सन्निधि में विधिपुरस्सर मन्त्र पढ़े हैं । उन विधियों का अनुवाद कर के अर्थवाद ब्राह्मण का निर्देश है । इसलिये यहां सम्प्रदायवित् आचार्य दो प्रकार के ब्राह्मण कहते हैं । मन्त्र काण्डस्थ विधिरूप जो अंश है वह ब्राह्मण कहाता है और उस से भिन्न सार्थवाद अनुब्राह्मण कहता है ।
सायणाचार्य १।६।१२ के अन्त में प्रपाठक के अनुवाकों में कथित २० कार्य का संक्षेप लिखते हुए लिखता है -
भ्रष्टमे संहितायां तु समन्त्रा विधयः स्मृताः । विधिव्याख्यानरूपत्वाद् अनुब्राह्मणमुच्यते ॥
इस वचन से जाना जाता है कि जो ब्राह्मण वचन विधिभाग के व्याख्यानरूप हैं, उन्हे अनुब्राह्मण कहते हैं ।
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संभवत: इसी दृष्टि से भट्ट भास्कर ने तै० सं० ११८०१ के भाष्य के आरम्भ में ही लिखा है
अनुब्राह्मणं च भवति - प्रष्टावेतानि हवींषि भवन्ति ( तै० ब्रा० १।६।१ अन्ते) ।
शांखायन श्रौत के भाष्यकार प्रानर्तीय ब्रह्मदत्त ने १४ । २ । ३ में ३० लिला है