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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्राचीन मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐतरेय आरण्यक के पंचम प्रपाठक के समान ऐतरेय ब्राह्मण की अन्तिम दो पञ्जिकाएं अर्वाचीन हैं । उन्हें शौनक प्रोक्त माना जाता है। इतना ही नहीं, ऐतरेय ब्राह्मण का वर्तमान प्रवचन भी शौनक द्वारा परिष्कृत है । अतः जब तक किसी दृढ़तर प्रमाण से यह प्रमाणित न हो जावे कि ऐतरेय ब्राह्मण का उक्त पाठ ऐतरेय का ही प्रवचन है, परिष्कर्ता शौनक का नहीं, तब तक इस वचन के आधार पर शाकल्य को ऐतरेय से प्राचीन नहीं माना जा सकता ।
ऐतरेय ब्राह्मण के वचन का अर्थ - सायण ने ऐतरेय ब्राह्मण के १० उपर्युक्त वचन का अर्थ न समझ कर लिखा है - शाकल शब्द सर्प विशेष का वाची है । शाकल नाम के सर्प की जैसी गति है वैसे ही अग्निष्टोम की हैं । षड्गुरुशिष्य का भी यही भाव है । ये दोनों व्याख्याएं नितान्त श्रशुद्ध हैं। यहां उक्त वचन का अभिप्राय इतना ही है कि शाकल चरण के आदि और अन्त अर्थात् उपक्रम और उप१५ संहार के समान होने से उस को गति अर्थात् प्रद्यन्त की प्रतीत नहीं होतो । शाकल चरण के प्रथम मण्डल में १९१ सूक्त हैं और दशम मण्डल में भी १९१ सूक्त हैं । यही उपक्रम और उपसंहार को समानता यहां अग्निष्टोम से दर्शाई है ।
हमारे विचार में प्राचार्य शाकल्य का काल विक्रम से ३१०० पूर्व २० है ।
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शाकल्य का व्याकरण
पाणिनि और प्रातिशाख्यों में उद्धृत मतों के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि शाकल्य के व्याकरण में लौकिक वैदिक उभयविधे शब्दों का अन्वाख्यान था ।
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कवीन्द्राचार्य के पुस्तकालय का जो सूचीपत्र बड़ोदा की गायकवाड़ ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुआ है, उसमें शाकल व्याकरण का उल्लेख है ।' सम्भव है वह कोई अर्वाचीन ग्रन्थ हो ।
१. शाकल्यशब्दः सर्पविशेषवाची । शाकलनाम्नोऽहे : सर्प विशेषस्य यथा सर्पणं गमनं तथैवायमग्निष्टोमः ।
२. सर्प: शाकलनामा तु बालं दृष्ट्वा दृढं मुखे । चक्रवन्मण्डलीभूतः सर्पनहिः परिदृश्यते ॥
३. पृष्ठ ३ ।