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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
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से परिपूर्ण गृह का सर्वदा के लिए परित्याग कर दिया। इस समय इनकी प्रायु लगभग २२ वर्ष की थी । यह घटना वि० संवत् १९०३ की है ।
गृह-परित्याग के अनन्तर योगियों के अन्वेषण और सच्चे शिव के दर्शन की लालसा से लगभग पन्द्रह वर्ष तक हिंस्र जन्तुनों से परिपूर्ण ५ भयानक वन कन्दरा और हिमालय की ऊंची-ऊंची सदा बर्फ से ढकी चोटियों पर भ्रमण करते रहे । इस काल में इन्होंने योग की विविध क्रियायों और अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया ।
गुरु - नर्वदा तटीय चाणोदकन्याली में मूलजी ने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण किया, और दयानन्द १० सरस्वती नाम पाया । नर्मदा स्रोत को यात्रा में इन्होंने मथुरानिवासी प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द स्वामी के पाण्डित्य की प्रशंसा सुनी । अतः उस यात्रा की परिसमाप्ति पर उन्होंने मथुरा श्राकर वि० सं० १९९७ - १९२० तक लगभग ३ वर्ष स्वामी विरजानन्द से व्याकरण आदि शास्त्रों का अध्ययन किया । स्वामी विरजानन्द व्या- १५ करणशास्त्र के श्रद्वितीय विद्वान् थे । इनकी व्याकरण के नव्य और प्राचीन सभी ग्रन्थों में अव्याहत गति थी । तात्कालिक समस्त पण्डित - समाज पर इनके व्याकरणज्ञान की धाक थी । स्वामी दयानन्द भी इन्हें 'व्याकरण का सूर्य' कहा करते थे । इन्हीं के प्रयत्न से कोमुदी आदि के पठन-पाठन से नष्टप्रायः महाभाष्य के पठन-पाठन का पुनः २० प्रवर्तन हुआ था, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।'
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काल
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म वि० सं० १८८१ में हुआ था । इनके जन्म की तिथि प्राश्विन बदि ७ कही जाती है । कई पौष में मानते हैं । इनका स्वर्गवास वि० सं० १९४० कार्तिक कृष्णा प्रमा- २५ वास्या दीपावली के दिन सायं ६ बजे हुआ था ।
अष्टाध्यायी भाष्य
स्वामी दयानन्द के १५ अगस्त सन् १८७८ ई० ( प्राषाढ़ बदि २ सं० १९३५ वि०) के पत्र से ज्ञात होता है कि भ्रष्टाध्यायी भाष्य की
१. द्र० – पूर्व पृष्ठ३७९ – ३८० ।
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