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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
युक्त है । यह दूसरी बात है कि कहीं-कहीं इष्ट स्वर की सिद्धि के लिये व्याख्याकार सूत्रस्थ शब्दविशेष में स्वरविशेष का निर्दश स्वीकार करते हैं । यथा-सत्यादशपथे (५।४।६६) में सत्य शब्द के यत्प्रत्ययान्त होने से प्राद्य दात्तत्व की प्राप्ति (द्र०-६।१।२०७) में अन्तोदात्तत्व की सिद्धि के लिये 'सत्य' शब्द का अन्तोदात्त स्वर से निर्देश मानते हैं।'
प्रतिज्ञापरिशिष्ट' में लिखा है-तान एवाङ्गोपाङ्गानाम् ।' अर्थात अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्यों मे तान अर्थात् एकच तिस्वर ही है।'
सस्वरपाठ के कुछ हस्तलेख १० अष्टाध्यायी सूत्र-पाठ के जो कतिपय सस्वर हस्तलेख हमें देखने
को मिले हैं, उन का नीचे उल्लेख किया जाता है
१-भूतपूर्व डी० ए० वी० कालेज लाहौर के लालचन्द पुस्तकालय में अष्टाध्यायी का नं० ३१११ का एक हस्तलेख था । उस हस्तलेख में अष्टाध्यायो के केवल प्रथमपाद पर स्वर के चिह्न हैं। वे स्वरचिह्न स्वरशास्त्र के नियमों के अनुसार शत प्रतिशत अशुद्ध हैं ।
२-हमारे पास भी अष्टाध्यायी के कुछ हस्तलिखित पत्रे हैं। इन्हें हमने काशी मैं अध्ययन करते हुए संवत् १९६१ में गंगा के जलप्रवाह से प्राप्त किया था। उनके साथ कुछ अन्य ग्रन्थों के पत्रे भी थे । अष्टाध्यायी के उन पत्रों में सूत्रपाठ के किसी किसी अक्षर पर खड़ी रेखा अङ्कित है। हमने अपने कई मित्रों को वे पत्रे दिखाए, परन्तु उस चिह्न का अभिप्राय समझ में नहीं आया। ___३–'निपाणी' (जिला-बेळगांव, कर्नाटक) की 'पाणिनीय संस्कृत पाठशाला' के प्राचार्य श्री पं० माधव गणेश जोशी जी के संग्रह में अष्टाध्यायी के सूत्र-पाठ का एक ऐसा हस्तलेख है, जिस में समग्र
१. द्र०--ऋग्वेद सायण भाष्य ११११५॥ २. प्रतिज्ञा-परिशष्ट दो प्रकार का है—एक प्रातिशाख्य का परिशिष्ट है, दूसरा श्रौतसूत्र का।
३. चौखम्बा सीरिज (काशी) मुद्रित यजुःप्रातिशाख्य के अन्त में मूद्रित ।
४. हमारे पास निरुक्त के हस्तलेख के कुछ पत्रे हैं, जिन में निरुक्त के कुछ वाक्यों पर स्वरचिह्न हैं । निरुक्त निश्चय ही सस्वर था । इस के लिएदे खिए ३० हमारा 'वदिक-स्वर-मीमांसा' ग्रन्थ, पृष्ठ ४७, ४८ (द्वि० सं०) ।
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