SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २४६ सूत्रों पर स्वरचिह्न अङ्कित हैं । आप ने यह हस्तलेख हमें पूना विश्वविद्यालय में 8-१४ जुलाई १९८१ में सम्पन्न हुए 'इण्टर नेशनल सेमिनार प्रोन पाणिनि' के अवसर पर देखने के लिये दिया था। हम ने उस का स्वरशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्मता से निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि इस हस्तलेख में भी स्वरचिह्न प्रायः स्वरशास्त्र के ५ नियमों के प्रतिकूल हैं। प्रतीत होता है नागेश आदि के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखते हुए किन्ही स्वरप्रक्रिया से अनभिज्ञ व्यक्तियों ने मनमाने स्वर-चिह्न लगाने की धृष्टता की है, अन्यथा ये चिह्न सर्वथा अशुद्ध न होते । ____ अष्टाध्यायी में प्राचीन सूत्रों का उद्धार १० पाणिनि ने अपनी रचना सूत्रों में है। कई प्राचार्य सूत्र शब्द की व्युत्पत्ति 'सूचनात् सूत्रम्' अर्थात् संकेत करने वाला संक्षिप्त वचन करते हैं। पाणिनि ने कई स्थानों पर बहुत लाघव से काम लिया है । उसी के प्राधार पर अर्वाचीन वैयाकरणों में प्रसिद्ध है-अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः। सूत्ररचना में गुरुलाघव- १५ विचार का प्रारम्भ काशकृत्स्न प्राचार्य से हुआ था। पाणिनि ने शाब्दिक लाघव का ध्यान रखते हुए अर्थकृत लाघव को प्रधानता दी है। अत एव उस के व्याकरण में 'टि, घु' आदि अल्पाक्षर संजाओं १. इस हस्तलेख की प्रतिकृति (फोटो स्टेट कापी) हमारे पास भी है । २. सूचनात् सूत्रणाच्चैव ....."सूत्रस्थानं प्रचक्षते । सुश्रुत सूत्रस्थान ४ । २० १२॥ सूचयति सूते सूत्रयति वा सूत्रम् । दुर्गसिंह, कातन्त्रवृत्तिटीका, परिशिष्ट पृष्ठ ४०६ ॥ सूत्रं सूचनकृत्, सूत्र्यते प्रथ्यते इति सूत्रम्, सूचनाद्वा । हैम अभि० चिन्ता० पृष्ठ १०८ ॥ वायुपुराण ४६ । १४२ में सूत्र का लक्षण इस प्रकार किया है—अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ ३. परिभाषेन्दुशेखर, परिभाषा १३३। ५ ४. देखो पूर्व पृष्ठ १३०-१३१ ।। ५. ननु च पूर्वाचार्या अपि वैयाकरणत्वाल्लाघवमभिलषन्तः किमिति गरीयसी: स्वरादिसंज्ञाः प्रणीतवन्तः ? सत्यम्, अन्वर्थत्वात् तासाम् । अयमर्थः-द्विविधं हि लाघवं भवति-शब्दकृतमर्थकृतं च । तत्रार्थकृतमेव लाघवं प्रधानं परार्थप्रवृत्तत्वात्तेषामभीष्टम् । त्रिलोचनटीका, कातन्त्र-परिशिष्टम्, १० पृष्ठ ४७२।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy