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पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८३ अपेक्षा अष्टाध्यायी-क्रम से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन करने से अल्प परिश्रम और अल्पकाल में अधिक बोध होता है। और अष्टाध्यायी के क्रम से प्राप्त हुअा बोध चिरस्थायी होता है । हम उदाहरण देकर इस बात को स्पष्ट करते हैं। यथा
१-सिद्धान्तकौमुदी में 'प्राद् गुणः" सूत्र अच्सन्धि में व्याख्यात ५ है । वहां इसकी वृत्ति इस प्रकार लिखी है'प्रवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण प्रादेशः स्यात् संहितायाम्' ।'
इस वृत्ति में 'अचि, पूर्वपरयोः, एकः, संहितायाम्' ये पद कहां से संगृहीत हुए, इसका ज्ञान सिद्धान्तकौमुदी पढ़नेवाले छात्र को नहीं होता । अतः उसे सूत्र के साथ-साथ सूत्र से ५-६ गुनी वृत्ति भी १० कण्ठाग्र करनी पड़ती है । अष्टाध्यायी के क्रमानुसार अध्ययन करनेवाले छात्र को इन पदों की अनुवृत्तियों का सम्यक् बोध होता है, अतः उसे वृत्ति घोखने का परिश्रम नहीं करना पड़ता । उसे केवल पूर्वानुवृत्त पदों के सम्बन्धमात्र का ज्ञान करना होता है । इस प्रकार अष्टाध्यायी के क्रमानुसार पढ़नेवाले छात्र को सिद्धान्तकौमूदी की १५ अपेक्षा छठा भाग अर्थात् सूत्रमात्र कण्ठाग्र करना होता है । वह इतने महान् परिश्रम और समय की व्यर्थ हानि से बच जाता है।
२-अष्टाध्यायी में 'इट्' 'द्विवचन' 'नुम्' प्रादि सव प्रकरण सूसम्बद्ध पढ़े है । यदि किसी व्यक्ति को इट वा नुम् की प्राप्ति के विषय में कहीं सन्देह उत्पन्न हो जाय, तो अष्टाध्यायी के क्रम से पढ़ा २० हुमा व्यक्ति ४,५ मिनट से सम्पूर्ण प्रकरण का पाठ करके सन्देहमुक्त हो सकता है। परन्तु कौमुदी क्रम से अध्ययन करनेवाला शीघ्र सन्देहमुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि उनमें ये प्रकरण के सूत्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। - ३-पाणिनीय व्याकरण में 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्, प्रसिद्धवद- २५ प्राभात्, पूर्वत्रासिद्धम्'५ आदि सूत्रों के अनेक कार्य ऐसे हैं, जिनमें सूत्रपाठक्रम के ज्ञान की महती आवश्यकता होती है। सूत्रपाठक्रम के विना जाने पूर्व, पर, आभात, त्रिपादी, सपादसप्ताध्यायी आदि का ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। और इसके विना शास्त्र का पूर्ण
१. अष्टा० ६।१।८७॥ २. सूत्रसंख्या ६६। ३. अष्टा १।४।२॥ ३० ४. अष्टा० ६।४।२२॥
५. अष्टा० ८।२।१॥