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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
बोध नहीं होता। सिद्धान्तकौमुदी पढ़े हुए छात्र को सूत्रपाठ के क्रम का ज्ञान न होने से महाभाष्य पूर्णतया समझ में नहीं पाता। उसे पदे-पदे महती कठिनाई का अनुभव होता है, यह हमारा अपना अनुभव है।
४-सिद्धान्तकौमुदी आदि के क्रम से पढ़े हुए छात्र को व्याकरणशास्त्र शीघ्र विस्मत हो जाता है । अष्टाध्यायी के क्रम से व्याकरण पढ़नेवाले छात्र को सूत्रपाठ-क्रम और अनुवृत्ति के संस्कार के कारण वह शीघ्र विस्मृत नहीं होता।
____५-सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रिया ग्रन्थों के द्वारा पाणिनीय व्या१० करण का अध्ययन करनेवालों का अनेक विषयों में मिथ्या वा भ्रान्त ज्ञान होता है । यथा
समर्थः पदविधिः (२०११) सूत्र सिद्धान्तकौमुदी में समास प्रकरण में पढ़ा है। अतः उसके अध्येता वा अध्यापक इस सूत्र को
समास प्रकरण का ही मानते हैं । जब कि अष्टाध्यायी में यह सूत्र १५ प्राक्कडारात् समासः (२।१३) से पूर्व पठित है । भाष्यकार ने इसे परिभाषा सूत्र माना है और पूरे शास्त्र में इस की प्रवृत्ति दर्शाई है।
इसी प्रकार एक शेष प्रकरण (१।२।६५-७३)के सूत्रों को सिद्धान्तकौमुदी में द्वन्द्व समास के प्रकरण में पढ़ने से इसके पढ़ने पढ़ाने वाले
एकशेष को द्वन्द्व समास का भेद समझते हैं। २० सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रिया-ग्रन्यों के आधार पर पाणिनीय
व्याकरण पढ़ने में अन्य अनेक दोष हैं, जिन्हें हम विस्तरभिया यहां नहीं लिखते। __ यहां यह ध्यान में रखने योग्य है कि अष्टाध्यायी-क्रम से पाणि
नीय व्याकरण पढ़ने के जो लाभ ऊपर दर्शाए हैं, वे उन्हें ही प्राप्त २५ होते हैं, जिन्हें सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पूर्णतया कण्ठाग्र होती है, और
महाभाष्य के अध्ययन-पर्यन्त बराबर कण्ठान रहती है। जिन्हें अष्टाध्यायी कण्ठाग्र नहीं होती, और अष्टाध्यायी के क्रम से व्याकरण पढ़ते हैं, वे न केवल उसके लाभ से वञ्चित रहते हैं, अपितु अधिक
कठिनाई का अनुभव करते हैं। प्राचीन काल में प्रथम अष्टाध्यायी . कण्ठान कराने को परिपाटी थी। इत्सिग भी अपनी भारतयात्रा
पुस्तक में इस ग्रन्थ का निर्देश करता है।