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________________ पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया-ग्रन्थकार ५८५ पाणिनीय-क्रम का महान् उद्धारक... विक्रम की १५ वीं शताब्दी से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन प्रक्रियाग्रन्थों के आधार पर होने लगा और अतिशीघ्र सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रवृत्त हो गया । १६ वीं शताब्दी के अनन्तर अष्टाध्यायी के क्रम से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन प्रायः लुप्त हो गया। ५ लगभग ४०० सौ वर्ष तक यही क्रम प्रवृत्त रहा । विक्रम की १६ वीं शताब्दी के अन्त में महावैयाकरण दण्डी स्वामी विरजानन्द को प्रक्रियाक्रम से पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन में होनेवाली हानियों की उपज्ञा हुई । अतः उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी के पठन-पाठन को छोड़कर अष्टाध्यायी पढ़ाना प्रारम्भ किया । तत्पश्चात् उनके शिष्य १० स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में अष्टाध्यायी के अध्ययन पर विशेष बल दिया। अब अनेक पाणितीय वयाकरण सिद्धान्तकौमुदी के क्रम को हानिकारक और अष्टाध्यायी के क्रम को लाभदायक मानने लगे हैं । इस ग्रन्थ के लेखक ने पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन अष्टा- १५ ध्यायी के क्रम से किया है । और काशी में अध्ययन करते हुए सिद्धान्तकौमुदी के पठनपाठन-क्रम का परिशीलन किया है, तथा अनेक छात्रों को सम्पूर्ण महाभाष्य-पर्यन्त व्याकरण पढ़ाया है। उससे हम भी इसी परिणाम पर पहुंचे हैं कि शब्दशास्त्र के ज्ञान के लिये पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन उसकी अष्टाध्यायी के क्रम से ही करना २० चाहिये। काशी के व्याकरणाचार्यों को सिद्धान्तकौमुदी के क्रम से व्याकरण का जितना ज्ञान १०, १२ वर्षों में होता है, उससे अधिक ज्ञान अष्टाध्यायी के क्रम से ४-५ वर्षों में हो जाता है, और वह चिरस्थायी होता है। यह हमारा वहुधा अनुभूत है । इत्यलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु । अनेक वैयाकरणों ने पाणिनीय व्याकरण पर प्रक्रिया-ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें से प्रधान-प्रधान ग्रन्थकारों का वर्णन आगे किया जाता है १. धर्मकीर्ति (सं० ११४० वि० के लगभग) अष्टाध्यायी पर जितने प्रक्रियानुसारी ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ३० सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'रूपावतार' इस समय उपलब्ध होता है। इस
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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