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________________ पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य ८५ उस से विदित होता है कि बृहस्पति ने शब्दों का प्रतिपद पाठ द्वारा उपदेश किया था। इस की पुष्टि न्यायमञ्जरी में उद्धृत प्रौशनस (=उशना के) वचन से भी होती है । यथा तथा च बृहस्पति:-'प्रतिपदमशक्यत्वाल्लक्षणस्याप्यव्यवस्थानात् तत्रापि स्खलितपर्शनाद् अनवस्थाप्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधियाकर- ५ णमिति प्रौशनसाः' इति ।' यह प्रतिपद पाठ भी किस प्रकार का था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पुनरपि हमारा अनुमान है कि बार्हस्पत्य शब्दपारायण ग्रन्थ में शब्दों के रूपसादृश्य के आधार पर नामों वा आख्यातों का संग्रह रहा होगा । इस संभावना में निम्न हेतु हैं- १० १-पाणिनि आदि समस्त वैयाकरण धातुओं का संग्रह विशेष उनके रूपसादृश्य के आधार पर ही करते हैं । अर्थात् शप् आदि विभिन्न विकरणों अथवा उसके प्रभाव के आधार पर १० गणों (काशकृत्स्न और कातन्त्र ६ गणों) में विभक्त करते हैं । इसी प्रकार बृहस्पति ने धातु और नामों (-प्रातिपदिकों) का १५ प्रवचन भी रूपसादृश्य के आधार पर किया होगा। २-पाणिनि ने दीर्घ ईकारान्त ऊकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों की नदी संज्ञा कही है । पाणिनीय तन्त्र में सम्पूर्ण महती (एकाक्षर से अधिक) संज्ञाएं प्राचीन भावार्यों की हैं । महती संज्ञाए अन्वर्थ मानी गई हैं। परन्तु एकमात्र नदी संज्ञा ऐसी है, जो महती होती हई भी २० अन्वर्थ नहीं है । इस से विदित होता है कि यह नदी संज्ञा उस तन्त्रान्तर से संगहीत है, जिस में नामों के रूपसादृश्य के आधार पर शब्दसमूहों का पाठ था। और उस दीर्घ ईकारान्न ऊकारान्त शब्दसमूह के आदि में नदी शब्द प्रयुक्त होने से वह सारा समुदाय नदी शब्द से व्यवहृत होता था। आज भी हम तत्तद गणों का उस-उस गण के २५ आदि में पठित शब्द के साथ आदि शब्द का प्रयोग करके सर्वादि स्वरादि के रूप में करते हैं। ३–पाणिनि की नदी संज्ञा के समान कातन्त्र में हस्त्र इकारान्त उंकारान्त की अग्नि संज्ञा, और दीर्घ आकारान्त की श्रद्धा संज्ञा का १. लाजरस कम्पनी काशी मुद्रित, पृष्ठ ४१८ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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