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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उल्लेख मिलता है ।'
कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का है। बृहस्पति इन्द्र का गुरु है। अतः कातन्त्र की अग्नि श्रद्धा और नदी संज्ञानों से यही ध्वनित
होता है कि ये शब्द किसी समय तत्तद् समानरूप वाले समूहों के ५ पाद्या शब्द थे । उन्हें ही उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने संज्ञारूप से स्वीकार कर लिया।
पाणिनि का विशेष सूत्र-पाणिनि का एक सूत्र हैं गोतो णित् (७।१।६० ) । इस सूत्र में गो शब्द से पञ्चम्यर्थक तसिल का निर्देश
है। सम्पूर्ण पाणिनीय तन्त्र में कहीं पर भी शब्दविशेष से तसिल का १० निर्देश नहीं किया गया। कुछ वैयाकरण इसे तपरनिर्देश मानते हैं,
वह भी युक्त नहीं। क्योंकि तपरनिर्दश वर्ण के साथ किया जाता है, न कि शब्द के साथ । इतना ही नहीं, इस सूत्र में केवल 'गो' शब्द का निर्देश मानने पर यो शब्द का उपसंख्यान भी करना पड़ता है। ये
सब कठिनाइयां तभी उपस्थित होती हैं, जब इस सूत्र में गो शब्द का १५ निर्देश स्वीकार किया जाता है। यदि कातन्त्र की अग्नि-श्रद्धा-नदी और
पाणिनि की नदी संज्ञा के समान इस गो शब्द को भी शब्दपारायणान्तर्गत ओकारान्त शब्दों का आद्य शब्द मान कर संज्ञावाची शब्द मान लिया जाए, तो कोई आपत्ति नहीं पाती और तसिल से निर्देश
भी अञ्जसा उपपन्न हो जाता है। ऐसी अवस्था में इस सूत्र के प्रोतो २० णित् पाठ में मूलतः कोई अन्तर नहीं पड़ता, और ना ही द्यो शब्द के
उपसंख्यान की आवश्यकता रहती है। ___ महाभाष्यकार ने प्रौतोम्शसो: सूत्र पर कहा है-पा गोत इतिवक्तव्यम । इस पर कैयट ने लिखा है-'गोत इत्योकारान्तोलक्षणार्थ वा
व्याख्येयम्' । अग्नि, श्रद्धा, नदी संज्ञावत् यदि यहां भी 'गो' प्रोका२५ रान्तों की संज्ञा स्वीकार कर लें, तो अोकारान्तों के उपलक्षणार्थ
मानने की भी आवश्यकता नहीं रहती और तसिल प्रत्यय तथा तपरनिर्देश के प्रयोग में हमने जो दोष दर्शाये हैं, वे भी उपपन्न नहीं होते।
बृहस्पति के शास्त्र का नाम-बृहस्पति ने इन्द्र के लिए जिस ३० शब्दशास्त्र का प्रवचन किया था, उस का नाम शब्दपारायण था,
१. कातन्त्र सू २०११८, १०॥