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________________ २० पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १५३ है कि काशकृत्स्न व्याकरण के सदृश आपिशल व्याकरण में भी 'तदर्हम्' सूत्र नहीं था । (ख) 'नाज्झलौ ' सूत्र का अभाव पाणिनि का नाज्झलौ ( १ | १|१०) सूत्र प्रापिशल व्याकरण में नहीं था, क्योंकि उसकी शिक्षा में - ईषद्विवृतकरणा ऊष्माण: । ३ । ६ ।। विवृतकरणाः स्वराः । ३ । ७॥ सूत्रों द्वारा इॠ के ह श ष ऊष्मों के प्रयत्न भिन्न-भिन्न माने हैं । अतः प्रयत्नैक्य के अभाव में न सवर्ण संज्ञा प्राप्त होती है, न प्रतिषेध की ही आवश्यकता है । पाणिनीय शिक्षा में विवृकरणा वा १० सूत्र द्वारा पक्षान्तर में ऊष्मों का भी विवृतकरण प्रयत्न स्वीकार करने से पक्ष में सवर्ण संज्ञा प्राप्त होती है । अतः पाणिनि के मत में उस का नाज्झलौ सूत्र द्वारा प्रतिषेध आवश्यक है । इससे स्पष्ट है कि पिशल व्याकरण में उक्त सूत्र नहीं था । आपिशलि के प्रकीर्ण उद्धरण पूर्वोद्धृत सूत्रों के अतिरिक्त प्रापिशलि के नाम से अनेक वचन प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यथा • १ - अनन्तदेव भाषिकसूत्र की व्याख्या में लिखता है - यथापिशलिनोक्तम् - ऋवर्णलुवर्णयोर्दीर्घा [न] भवन्तीति ।' १५ २ – कविराज ने आपिशलि का निम्न मत उद्धृत किया है २० एकवर्णकार्य विकार:, अनेकवर्णकार्यमा देश इत्यापिशलीयं मतम् ।' ३ - कातन्त्रवृत्ति की दुर्गविरचित टीका में प्राविशलि का निम्न श्लोक उद्धृत है - १. काशी के छपे हुए यजुः प्रातिशाख्य के अन्त में, पृष्ठ ४६६ । शतपथ सायणभाष्य भाग १, पृष्ठ ३१८ पर कोष्ठ में निर्दिष्ट 'न' पद मूल में छपा है । २५ २. कातन्त्रटीका २|३|३३|| यह श्लोक त्रिलोचनदास ने कातन्त्र वृत्तिपञ्जिका २|१|१६ में भी इसी रूप में उद्धृत किया है । द्र० 'संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश परम्परा, पृष्ठ ११४ । तुलना करो - ' विकारो नाम वर्णास्मक आदेशः । शब्दकौस्तुभ, पृष्ठ ३४४ ॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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