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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १११ का नाम 'पुष्करसत्' था। जयादित्य प्रभृति वैयाकरणों का भी यही मत है।'
सन्तति-पौष्करसादि के अपत्य पौष्करसादायन कहाते हैं । पाणिनि ने तौल्वल्यादि गण में पौष्करसादि पद पढ़ कर उससे उत्पन्न युवार्थक फक् (प्रायन) प्रत्यय के अलुक् का विधान किया है। ५
देश-हरदत्त के मत में पौष्करसादि आचार्य प्राग्देशवासी है। वह लिखता है-पुष्करसदः प्राच्यत्वात् । पाणिनीय व्याकरण से भी यही प्रतीत होता है, पौष्करसादायन में 'इजः प्राचाम्" सूत्र से युवार्थक प्रत्यय का लुक प्राप्त होता है, उस का निषेध करने के लिये पाणिनी ने 'तौल्वल्यादि' गण में पौष्करसादि पद पढ़ा है। बौद्ध १० जातकों में पोक्ख रसदों का उल्लेख मिलता है, वे प्राग्देशीय हैं।
यज्ञेश्वर भट्ट ने अपनी गणरत्नावली में पौष्करसादि पद का निर्वचन इस प्रकार किया है
पुष्करे तीर्थविशेषे सीदतीति पुष्करसत्, तस्यापत्यं पौष्करसादिः ।
इस निर्वचन के अनुसार पुष्करसत् अजमेर समीपवर्ती पुष्कर १५ क्षेत्रवासी प्रतीत होता है। पाणिनि के साथ विरोध होने से यज्ञेश्वर भट्ट की व्युत्पति को केवल अर्थप्रदर्शनपरक समझना चाहिए । अथवा सम्भव है प्राग्देश में भी कभी कोई पुष्कर क्षेत्र रहा हो । वहां की साम्प्रतिक भाषा में तालाब को 'पोक्खर' कहते हैं।
अन्यत्र उल्लेख पौष्करसादि प्राचार्य के मत महाभाष्य के एक वार्तिक और तैत्तिरीय तथा मैत्रायणीय प्रातिशाख्य में उद्धृत हैं, यह हम पूर्व कह चुके । इसका एक मत शांखायन आरण्यक ७।८ में मिलता है । हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र तथा अग्निवेश्य गृह्यसूत्र में पुष्करसादि के मत
१. पुष्करसच्छन्वाद् बाह्वादित्वादि अनुशतिकादीनां च (अष्टा० ७॥३॥ २५ २०) इत्युभयपदवृद्धिः । काशिका २।४१६३॥ बालमनोरमा, भाग २, पृष्ठ २८७ ॥
२. मष्टा० २।४।६१॥ ३. पदमन्जरी, भाग १, पृष्ठ ४८६ ।.. ४. मष्टा० २।४।६०॥ ५. ४।११६६॥ हमारा हस्तलेख, पृष्ठ १७५ । ३०
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