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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
निर्दिष्ट हैं ।' प्रापस्तम्ब धर्मसूत्र में भी दो बार 'पुष्करसादि' प्राचार्य का उल्लेख है ।'
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पौष्करसादि पुष्करसादि का एकत्व - प्रापस्तम्ब धर्मसूत्र की व्याख्या में हरदत्त पुष्करसादि को पौष्करसादि प्राचार्य का ही निर्देश मानता है, और 'दिवृद्धि का प्रभाव छान्दस है ऐसा कहता है । वस्तुतः यहां एकानुबन्धकृतमनित्यम्' इस परिमाण ने सोमेन्द्रचर के समान वृद्ध्यभाव मानना चाहिए ।" अग्निवेश्य अग्निवेश्यायन में भी यञ् परे क्वचित् वृद्ध्यभाव देखा जाता है ।
पौष्करसादि पद तौल्वल्यादि गण में पढ़ा है । पुष्करसत् पद का १० पाठ यस्कादि" बाह्वादि और अनुशतिकादि" गण में मिलता है । कात्यायन और पतञ्जलि दोनों ने पुष्करसत् का पाठ अनुशतिकादि गण में माना हैं ।" इस से स्पष्ट है कि पाणिनीय गणपाठ में इसका प्रक्षेप नहीं हुआ। तौल्वल्यादि गण में पौष्करसादि पद के पाठ से सिद्ध है कि पाणिनि न केवल पौष्करसादि से परिचित था, अपितु १५ उसके अपत्य पौष्करसादायन को भी जानता था । अतः पौष्करसादि
१. सद्यः पुष्करसादि: हि० के० गृ० १६८; तथा अग्निवेश्य गृह्म ११, पृष्ठ ६ द्र० ।
२. शुद्धा भिक्षा भोक्तव्यैककुणिको काण्वकुत्सो तथा पुष्करसादिः । १।१६। ७॥ यथा कथा च परपरिग्रहणमभिमन्यते स्तेनो ह भवतीति कौत्सहारीतौ तथा २० कण्वपुष्करसादी । १२८१ ॥
३. पौठररसादिरेव पुष्करसादिः, वृद्ध्यभावरछान्दसः | ११६५७॥ ४. द्र० - म०म० काशीनाथ अभ्यंकर सम्पादित परिभाषा - संग्रह, पृष्ठ
२२ ।
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५. J.KA.S. अप्रेल १९२८ में 'पौष्करसादि' पर छपा लेख द्रष्टव्य है । ६. द्र० - प्रग्निवेश्य तै० प्रा० ६ | ४ || द्र० मंत्रा० सं० स्वाध्यायमण्डल प्रकाशित प्रस्ताव, पृष्ठ १६ । प्रग्निवेश्यायन- ते० प्रा० १४ । ३२; मे० प्रा०
३०
२२३२॥
८. अष्टा० २।४।६३ ॥
६. अष्टा० ४। १ ६६ ॥
१०. श्रष्टा० ७७३/२०॥
११. पुष्कररसग्रहणाद् वा । श्रथवा यदयमनुशतिकादिषु पुष्करसच्छन्दं पठति । महाभाष्य ७५२॥११७॥
७. अष्टा० २ | ४ | ६१ ॥