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________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३३७ सूत्र के भाष्य से विदित होता है कि यह वचन अन्य वैयाकरणों का है। वहां स्पष्ट लिखा-इहान्ये वैयाकरणाः समस्तते विभाषा लोपमारभन्ते-समो हितततयोर्वा इति । २-महाभाष्य ४।१।१५ में वार्तिक पढ़ा है-नस्नजीकक्ल्यु। स्तरुणतलुनानामुपसंख्यानम् । यहां भी वार्तिककार के नाम का निर्देश ५ न होने से यह कात्यायन का वचन प्रतीत होता है, परन्तु महाभाष्य ३१२१५६ तथा ४।११८७ में इसे सौनागों का वार्तिक कहा है। इस विषय पर अधिक विचार हमने इस अध्याय के अन्त में 'महाभाष्यस्थ वार्तिकों पर एक दृष्टि' प्रकरण में किया है । अन्य ग्रन्थ १० स्वर्गारोहण काव्य-महाभाष्य ४।३।१०१ में वाररुच काव्य का उल्लेख मिलता है। वररुचि कात्ययनगोत्र का होने से उसे भी कात्यायन कहा जाता है । यह हम पूर्व लिख चुके हैं । महाराज समुद्रगुप्त ने कृष्णचरित के मुनिकविवर्णन में लिखा है-- यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि । काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः कविः ॥ न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवातिकर्यः । काव्येऽपि भूयोऽनुचकार तं वै कात्यायनोऽसौ कविकर्मदक्षः ॥ अर्थात्-जो स्वर्ग में जाकर (श्लेष से स्वर्गारोहण-संज्ञक काव्य रचकर) स्वर्ग को पृथिवी पर ले आया, वह वररुचि अपने मनोहर २० काव्य से विख्यात है । उस महाकवि कात्यायन ने केवल पाणिनीय व्याकरण को ही अपने वार्तिकों से पुष्ट नहीं किया, अपितु काव्यरचना में भी उसी का अनुकरण किया है। • यहां समुद्रगुप्त ने भी दोनों नामों से एक ही व्यक्ति को स्मरण किया है। ___ कात्यायन के स्वर्गारोहण काव्य का उल्लेख जल्हणकृत सूक्तिमुक्तावली में भी मिलता है। उसमें राजशेखर के नाम से निम्न श्लोक उद्धृत है यथार्थतां कथं नाम्नि मा भूद् वररुचेरिह । व्यवत्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः ॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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