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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
द्विवेद का मत है। इस में उन्होंने माधवीय धातुवृत्ति, क्षीरतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों में कातन्त्र के मतों का 'दुर्ग' वा 'दौर्ग' पद से निर्देश को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है । तथा इस में पञ्जिकाकार का मत
भी उद्धत किया है । कातन्त्र २।४।२७ का सूत्र है-तादर्थ्ये । इस ५ पर पञ्जिकाकार लिखता है
कथमिदमुच्यते, न खल्वेतच्छर्ववर्मकृतसूत्रम् । अत्र तु वृत्तिकृता मतान्तरमादर्शितम् । इह हि प्रस्तावे चन्द्रगोमिना प्रणीतमिदम् । (पञ्जिका २।४।२७) ।
भारतीय वाङमय में बहत से ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका उत्तर काल में संस्कार वा परिष्कार किया गया है। इस दृष्टि से यदि कातन्त्र व्याकरण का भी दुर्गसिंह ने परिष्कार किया हो तो यह सम्भव है। तथापि कातन्त्र व्याकरण का भी दुर्ग वा दौर्ग नाम से उद्धृत होने मात्र से दुर्ग द्वारा संस्कार की सम्भावना प्रकट करना हमारे विचार
में विचारार्ह है। क्योंकि बहुत्र यह देखने में आता है कि उत्तर काल १५ के लेखक मूलग्रन्थ के मतों का टीकाकार के नाम से उद्धृत करते
हैं। पञ्जिका के प्रमाण से भी इतना ही विदित होता है कि दुर्गसिंह ने तादर्थ्य चान्द्रसूत्र मतान्तर निदर्शनार्थ उद्धत किया था। सम्भव है दुर्ग द्वारा उसकी व्याख्या करने के कारण उत्तरवर्ती लेखकों ने,उसे
मूल ग्रन्थ का सूत्र समझ कर मूल ग्रन्थ में सन्निविष्ट कर दिया हो । २० अतः यह उद्धरण भी दुर्ग द्वारा मूलग्रन्थ के संस्कार करने के प्रमाण के
लिये महत्त्वपूर्ण नहीं है। भावी लेखकों पर इस विषय में गम्भीरता से विचार करना चाहिये।
कातन्त्र व्याकरण से सम्बद्ध वर्णसमाम्नाय
यद्यपि मूल कातन्त्र व्याकरण में साक्षात् वर्णसमाम्नाय का निर्देश २५ नहीं मिलता है, तथापि उस के कतिपय व्याख्याकारों के अनुसार
कोई वर्णसमाम्नाय प्राश्रित किया गया था । कातन्त्र व्याकरणविमर्श के लेखक ने इस विषय के तीन प्रमाण प्रस्तुत किये हैं
१. वर्णसमाम्नाये कादिष्वकार उच्चारणार्थः । का० वृत्ति टोका १॥१६॥ ३० २. ननु वर्णसमाम्नायस्य क्रमसिद्धत्वात् सन्ध्यक्षरसंज्ञाऽनन्तर
१. कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ ६ ।