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आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
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मेवानुस्वारविसर्जनीययोः संज्ञानिर्देशो युज्यते । तत्कथं व्यतिक्रमनिर्देशः । सत्यमनयोर प्रधानत्वात् पश्चात् निर्देशः । पञ्जिका
१।१।१६ ।।
३. ननु हकारपर्यन्तमिति कथमुक्तं क्षकारस्यापि विद्यमानत्वात् । नैवं क्षकारस्योक्तवर्णेष्वेवान्तर्भावात् । कथं तर्हि वर्णसमाम्नाये तदु- ५ देश इति चेत् ? कादीनां संयोगसूचनार्थमिति न दोषः । कलाप चन्द्र कविराज सुषेण १|१| |
इन उद्धरणों का निर्देश करके कातन्त्रव्याकरणविमर्श के लेखक ने लिखा है - 'वर्णसमाम्नाय का पाठ न होने पर भी कोई वर्ण समाम्नाय निश्चय ही यहां प्राचार्य ने स्वीकार किया है।'
लेखक की भ्रान्ति - हमारे विचार से इन उद्धरणों से किसी विशिष्ट वर्ण समाम्नाय के श्राश्रयण की सिद्धि नहीं होती है। इनमें जिस वर्णसमाम्नाय का निर्देश है वह लोक प्रसिद्ध वर्णसमाम्नाय ही है । उसी में सन्ध्यक्षरों के पश्चात् श्रं श्रः के रूप में अनुस्वार विसर्जनीय का निर्देश अद्ययावत् मिलता है । इसी प्रकार हकार पश्चात् क्ष त्र ज्ञ का उल्लेख लौकिक वर्ण समाम्नाय में किया जाता है । कातन्त्र के प्रथम सूत्र सिद्धो वर्णसमाम्नाय से सूचित होता है कि यहां लोक सिद्ध ही वर्ण समाम्नाय स्वीकार किया गया है। प्रत्याहार-सूत्र ?
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लखनऊ नगरस्थ 'अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् के संग्रह में २० गोल्हण विरचित दुर्गसिंहीय कातन्त्र टीका पर 'चतुष्क टिप्पणिका' नाम से एक हस्तलेख विद्यमान है । यह हस्तलेख वि० सं० १४३६ का है । इस ग्रन्थ के अन्त में प्रत्याहार बोधक सूत्र तथा प्रत्याहार सूत्र पठित हैं | पाठ इस प्रकार है
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श्रादिरन्त्येन सहेता । श्रादि वर्णेन श्रन्तेन इता अनुबन्धेन सहितः २५ मध्यपतितानां वर्णानां ग्राहको भवति । तपरस्तत्कालस्य प्रणुदितः सवर्णस्य वा प्रत्ययः । न इ उ ण् । ऋ लृ क् । ए श्रो ण् । ऐ श्रौ ड् । ल ण् । ङ ञणनम् । फन ज् । घ ढ ध ष् । ज ग प ड द श । ख फ ब ढ थ च ट त व् । क प य् । श ष स र् । हल् । इति प्रक्केडमात्रन सम्यक ।
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१. तेन पाठाभावेऽपि कश्चिद् वर्णसमाम्नायो नूनमाचार्येणाङ्गीकृत इत्यवगन्तव्यम् । कातन्त्र व्याकरण विमर्श, पृष्ठ 8 ।