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________________ ६२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० यह लेख पर्याप्त अशुद्ध है । इन प्रत्याहार सूत्रों का गोल्हण कृत चतुष्क टिप्पणिका के अन्त में निर्देश का क्या प्रयोजन है, यह हमारो समझ में नहीं आया। इसी प्रकार इन प्रत्याहार सूत्रों का किस व्या करण के साथ सम्बन्ध है, यह कहना भी कठिन है। कातन्त्र पर ५ शोध करने वाले भावी विद्वानों को इस पर विचार करना चाहिये। कातन्त्र का प्रचार कातन्त्र व्याकरण का प्रचार सम्प्रति बंगाल तक ही सीमित है । परन्तु किसी समय इसका प्रचार न केवल सम्पूर्ण भारतवष में, अपितु उससे बाहर भी था। मारवाड़ की देशी पाठशालाओं में अभी तक जो 'सीधी पाटी' पढ़ायी जाती है, वह कातन्त्र के प्रारम्भिक भाग का विकृत रूप है, यह हम पूर्व लिख चके हैं। शूद्रक-विरचित पद्मप्राभतक भाण से प्रतीत होता है कि उसके काल में कातन्त्रानुयायियों की पाणिनीयों से महती स्पर्धा थी।' ___ कीथ अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखता है-कातन्त्र १५ के कुछ भाग मध्य एशिया की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इस पर मूसियोन जरनल में एल. फिनोत ने एक लेख लिखा था। देखोउक्त जरनल सन् १९११, पृष्ठ १९२। ___ कातन्त्र के ये भाग एशिया तक निश्चय ही बौद्ध भिक्षुत्रों के द्वारा पहुंचे होंगे। कातन्त्र का धातुपाठ अभी तक उपलब्ध है। इसके २० हस्तलेख की दो प्रतियां हमारे पास हैं ।। कातन्त्र के वृत्तिकार सम्प्रति कातन्त्र व्याकरण की सब से प्राचीन वृत्ति दुर्गसिंहविरचित उपलब्ध होती है । उसमें केचित् अपरे अन्ये आदि शब्दों द्वारा अनेक प्राचीन वृत्तिकारों के मत उद्धृत हैं । अतः यह निस्स२५ न्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि दुर्गसिंह से पूर्व कातन्त्र व्याकरण के अनेक वृत्तिकार हो चुके थे, जिनका हमें कुछ भी ज्ञान नहीं है । १. देखो-पूर्व पृष्ठ ६१६ टि० ३ । २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ४३१ । ३. जर्मन की छपी क्षीरतरङ्गिणी के अन्त में शर्ववर्मा का धातुपाठ भी ३० छपा है।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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