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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २. पाणिनीयमकालकं व्याकरणम् । काशिका ४।३।११५; जैन शाकटायन, चिन्तामणि-वृत्ति ३।१।१८२॥
पाणिनोपज्ञमकालक व्याकरणम् । काशिका ६।२॥१४॥
३. चान्द्रमसंज्ञक व्याकरणम् । सरस्वतीकण्ठाभरण-हृदयहारिणी ५ टोका ४।३।२४५।।
चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम् । चान्द्रवृत्ति २२२।८६; वामनीय लिङ्गानुशासन श्लोक ७, पृष्ठ ६ ।
इसी प्रकार काशकृत्स्न-व्याकरण की विशिष्टता का घोषक एक उदाहरण है-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् । .. यह उदाहरण काशिका ४।३।११५, सरस्वतीकण्ठाभरण ४।३।
२४५ की हृदयहारिणी टीका तथा जैन शाकटायन ३।१।१८२ की चिन्तामणि-टीका में उपलब्ध होता है।
इन सब उदाहरणों की तुलना से व्यक्त है कि जिस प्रकार पाणिनीय तन्त्र की विशेषता कालपरिभाषानों का अनिर्देश है, चान्द्र तन्त्र १५ की विशेषता संज्ञा-निर्देश विना किये शास्त्र-प्रवचन है, उसी प्रकार काशकृत्स्न तन्त्र की विशेषता गुरु-लाघव है।
गुरु-लाघव शब्द का अर्थ-हमने इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण (पृष्ठ ७३) में लिखा था
'व्याकरण-शास्त्र की सूत्र-रचना में गुरु-लाघव (गौरव-लाघव) का २० विचार सब से प्रथम काशकत्स्न आचार्य ने प्रारम्भ किया था। उससे पूर्व सूत्र-रचना में गौरव-लाघव का विचार नहीं किया जाता था ।'
पुन; इसी पृष्ठ की तीसरी टिप्पणी में लिखा था'हमारा विचार है, काशकृत्स्न से पूर्व सूत्र-रचना सम्भवतः ऋक्प्रातिशाख्य के समान श्लोकबद्ध होती थी। छन्दोबद्ध रचना होने पर २५ गौरव-लाघव का विचार पूर्णतया नहीं रखा जा सकता। उसमें
श्लोकपूर्त्यर्थ अनेक मनावश्यक पदों का समावेश करना पड़ता है।' ६।२।१४ में 'प्रापिशल्युपज्ञं गुरुलाघवम्' उदाहरण दिया है। हमारा विचार है कि यहां मूल पाठ 'प्रापिशल्युपशं' दुष्करणम्, काशकृत्स्न्युपशं गुरुलाघवम्' रहा
होगा। मध्य में से 'दुष्करणं काशकृत्स्न्युपज़' पाठ त्रुटित हो गया। तुलनीय २० काशिका, ४१३।११५-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम्; आपिशलं पुष्करणम् ।