________________
२१६
५
१०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अपेक्षित है । जिस के द्वारा पञ्चाल आदि देशों से उत्पन्न हुए क्षत्रियों का उस देश के साथ तस्य निवासः रूप सम्बन्ध-ज्ञान मिट जाए। ऐसो अवस्था में पाणिनि को नन्द से न्यूनातिन्यून २०० वर्ष पश्चात् मानना होगा। ऐसा मानने पर पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा खड़ा किया गया ऐतिहासिक प्रासाद लड़खड़ा जायेगा। अतः यह काल उन्हें भी इष्ट नहीं हो सकता । हम पूवे लिख चुके हैं कि पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुसार पाणिनि के काल में न केवल संस्कृत भाषा ही जनसाधारण की भाषा थी, अपितु उस में उदात्त आदि स्वरों का सूक्ष्म उच्चारण
भी होता था। नन्द अथवा उस से उत्तर काल में पाणिनि द्वारा बोधित । संस्कृत भाषा की वह स्थिति नहीं थी, उस समय जनसाधारण में
प्राकृत भाषाओं का ही बोलबाला था। प्रतः पाणिनि नन्द का समकालिक कदापि नहीं हो सकता । यदि हठधर्मी से यही मन्तव्य स्वीकार किया जाए तो पाणिनि के अन्तःसाक्ष्य से महान विरोध
होगा। १५ अब रह जाता है द्वितीय वार का सर्वक्षत्र-विनाश, जो भारत युद्ध
द्वारा हुआ था । तदनुसार भारतयुद्ध के अनन्तर लगभग २००-३०० वर्ष के मध्य पाणिनि का समय माना जा सकता है। भारतयुद्ध से लगभग २५० वर्ष पश्चात् पञ्चाल आदि क्षत्रिय पुनः अपनी पूर्व
स्थिति को प्राप्त करते हुए इतिहास में दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए २० पाणिनि का काल भारतयुद्ध से २०० वर्ष पूर्व से अधिक अर्वाचीन
नहीं हो सकता। पाणिनीय शास्त्र के उपरि निर्दिष्ट अन्तःसाक्ष्यों से भी इसो काल को ही पुष्टि होती है । इस काल तक संस्कृत भाषा जनसाधारण में बोली जाती रही और उस में उदात्तादि स्वरों का
उच्चारण पर्याप्त सीमा तक सुरक्षित रहा । इस के पश्चात जन२५ साधारण में अपभ्रष्ट भाषाओं का प्रयोग बढ़ने लगा और संस्कृत केवल शिष्टों की भाषा रह गई।
अब हम प्राचीन वाङमय से कतिपय ऐसे साक्ष्य उपस्थित करते हैं जिन से पाणिनि के काल के विषय में प्रकाश पड़ता है।
. पाणिनि के समकालिक प्राचार्य-हम अपनी उपर्युक्त स्थापना ३० की सिद्धि के लिए पहले पाणिनि के समकालिक वा कुछ पूर्ववर्ती
आचार्यों का संक्षेप से उल्लेख करते हैं