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________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ५३५ कौस्तुभखण्डनकर्ता-पण्डितराज जगन्नाथ पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रौढमनोरमा-खण्डन 'मनोरमाकुचमर्दन' में लिखा है 'इत्थं च प्रोत् सूत्रगतकौस्तुभग्रन्थः सर्वोप्यसंगत इति ध्येयम् । अधिकं कौस्तुभखण्डनादवसेयम् ।' इससे स्पष्ट है कि जगन्नाथ ने शब्दकौस्तुभ के खण्डन में कोई ग्रन्थ लिखा था। यह ग्रन्थ सम्प्रति अनुपलब्ध है। भट्टोजि से विग्रह का कारण-पण्डितराज जगन्नाथ का भट्टोजि दोक्षित के साथ अहिनकुलवैर के समान जो सहज वैर उत्पन्न हो गया था, उसके विषय में एक कवि ने लिखा है-'गर्वीले द्राविड़ (अप्पय दीक्षित) के दुराग्रहरूपी भूतावेश से गुरुद्रोही भट्टोजि ने भरी सभा में विना विचारे पण्डितराज को 'म्लेच्छ' कह दिया था। उसको धैर्यनिधि पण्डितराज ने उसकी मनोरमा का कुचमर्दन करके सत्य कर दिखाया । अप्पय दीक्षितादि (भट्टोजि के समर्थक) देखते रह गये।' परिचय तथा काल पण्डितराज तैलङ्ग ब्राह्मण थे । इनका दूसरा नाम 'वेल्लनाडू था, और इनको 'त्रिशूली' भी कहते थे । इनके पिता का नाम पेरंभट्ट और माता का नाम लक्ष्मी था। पेरंभट्ट ने ज्ञानेन्द्र भिक्षु से वेदान्त, महेन्द्र से न्याय वैशेषिक, भट्टदीपिकाकार खण्डदेव से मीमांसा, और शेष से महाभाष्य का अध्ययन किया था। पण्डितराज जगन्नाथ २० दिल्ली के सम्राट शाहजहां और दाराशिकोह के प्रेमपात्र थे। शाहजहां ने इन्हें पण्डितराज की पदवी प्रदान की थी। शाहजहां वि० सं० १६८४ में गद्दी पर बैठा था। ये चित्रमीमांसाकार अप्पयदीक्षित के. १. चौखम्बा संस्कृतसीरिज काशी से सं० १९९१ में प्रकाशित प्रौढमनोरमा भाग ३ के अन्त में मुद्रित, पृष्ठ २१ । २. दृप्यद् द्राविडदुर्ग्रहवशाम्लिष्टं गुरुद्रोहिणा, यन्म्लेच्छेति वचोऽविचिन्त्य सदसि प्रौढेपि भट्टोजिना । तत्सत्यापितमेव धैर्यनिधिना यत्स व्यमृद्नात् कुचम, निर्बघ्यास्य मनोरमामवशयन्नप्पयाद्यान् स्थितान् ॥ रसगंगाधर हिन्दी टोका (काशी) में उद्धृत।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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