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नववां अध्याय वार्तिकों के भाष्यकार
भाष्य का लक्षण विष्णुधर्मोत्तर के तृतीय खण्ड के चतुर्थाध्याय में भाष्य का ५ लक्षण इस प्रकार लिखा है
सूत्रार्थो वण्यते यत्र वाक्यः सूत्रानुसारिभिः ।
स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाप्यं भाष्यविदो विदुः ॥ अर्थात्-जिस ग्रन्थ में सूत्राथ, सूत्रानुसारी वाक्यों वातिर्को तथा अपने पदों का व्याख्यान किया जाता है, उसे भाष्य को जानने १. वाले भाष्य कहते हैं।
भाष्य पद का प्रयोग-पतञ्जलि-विरचित महाभाष्य में दो स्थानों पर लिखा है--उक्तो भावभेदो भाष्ये ।'
इस पर कैयट आदि टीकाकार लिखते हैं हि यहां 'भाष्य' पद से 'सार्वधातुके यक्' सूत्र के महाभाष्य की ओर संकेत हैं, परन्तु १५ हमारा विचार है कि पतञ्जलि का संकेत किसो प्राचीन भाष्यग्रन्थ की ओर है । इस में निम्न प्रमाण हैं--
१. महाभाष्य के 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' वाक्य की तुलना 'संग्रहे एतत् प्रधान्येन परीक्षितम्" संग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे'६
इत्यादि महाभाष्यस्थ-वचनों से की जाये, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि २० उक्त वाक्य में संग्रह के समान कोई प्राचीन भाष्य'नामक ग्रन्थ अभिप्रेत
है। अन्यथा पतञ्जलि अपनी शैली के अनुसार स्वग्रन्थ के निर्देश के लिए 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' में 'भाष्ये' शब्द का प्रयोग नहीं करता।
१. द्र०-पूर्व पृष्ठ ३१६ । .
२. ३॥३१६।। ३।४।६७॥ ३. अष्टा० ३३११६७॥ २५ ४. सार्वधातुके भावभेदः । ३।३।१९। सार्वधातुके यगित्यत्र बाह्याभ्यन्यरयोर्भावयोविशेषो दर्शितः । ३।४।६७।।
५. महाभाष्य अ० १, पा० १ आ. १, पृष्ठ ६ । ६. महाभाष्य अ० १, पा० १, प्रा० १, पृष्ठ ६ ।