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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३३ पाठान्तरों के तीन भेद-पाणिनीय सूत्रपाठ के जितने पाठान्तर उपलब्ध होते हैं, उन्हें हम तीन भागों में बांट सकते हैं । यथा
१-कुछ पाठान्तर ऐसे हैं, जो पाणिनि के स्वकीय प्रवचनभेद से उत्पन्न हुए हैं । यथा-उभयथा' ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः । केचिदाकडारादेका संज्ञा इति, केचित् प्राक्कडारात् परं ५ कार्यमिति ।
शुङ्गाशब्दं स्त्रीलिङ्गमन्ये पठन्ति । ततो ढकं प्रत्युदाहरन्ति शौङ्गेय इति । द्वयमपि चैतत् प्रमाणम्--उभयथा सूत्रप्रणयनात् ।'
२-वृत्तिकारों की व्याख्यानों के भेद से । यथा--जरद्भिरित्यपि पाठः केनचिदाचर्येण बोधितः ।
काण्डेविद्धिभ्य इत्यन्ये पठन्ति । सम्भव है ये पाठभेद भी प्राचार्य के प्रवचन-भेद से हुए हों, और वृत्तिविशेष में सुरक्षित रहे हों।
३-लेखक आदि के प्रमाद से । यथा-एवं चटकादैरगित्येतत् सूत्रमासीत् । इदानीं प्रमादात् चटकाया इति पाठः । ___ ग्रन्थकार के प्रवचनभेद से उत्पन्न पाठान्तर अत्यन्त स्वल्प हैं। वृत्तिकारों के व्याख्याभेद और लेखकप्रमाद से हुए पाठान्तर अधिक
मुद्रित अष्टाध्यायी के विशेष संस्करण (सं० २०२८) में हमने ये सब पाठभेद दे दिये हैं।
१. काशिका ६।२।१०४ में उदाहरण है-'पूर्वपाणिनीयाः, अपरपाणिनीयाः' । इन उदाहरणों से भी स्पष्ट है कि पाणिनि ने बहुधा अष्टाध्यायी का प्रवचन किया था।
२. महाभाष्य ११४१॥ - ३. काशिका ४१११११७।। देखो इस सूत्र का न्यास–'उभयथा ह्यतत सूत्रमाचार्येण प्रणीतम'। ४. पदमञ्जरी २।११६७। भाग १, पृष्ठ ३८४॥ २५
५. पदमञ्जरी ४।१८१॥ भाग२, पृष्ठ ७० ॥ ६. न्यास ४।१।१२८॥
७. पं० रामशंकर भट्टाचार्य ने हमारे द्वारा संगृहीत तथा स्वयं संगृहीत अष्टाध्यायी के पाठान्तरों का संकलन 'सारस्वती सुषमा' (काशी)के चैत्र सं० २००६ के अङ्क (७१) में प्रकाशित किया है। द्र० पृ० २३२, टि० ३। ३०