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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
३. क्षपणक (वि० प्रथम शताब्दी) व्याकरण के कतिपय ग्रन्यों में कुछ उद्धरण ऐसे उपलब्ध होते हैं, जिन से क्षपणक का व्याकरण-प्रवक्तृत्व ब्यक्त होता है । यथा
'अत एव नावमात्मानं मन्यते इति विगृह्य परत्वादनेन ह्रस्वत्वं बाधित्वा अमागमे सति नावंमन्ये क्षपणकव्याकरणे दर्शितम ।"
इसी प्रकार तन्त्रप्रदीप में भी क्षपणकव्याकरणे महान्यासे' उल्लेख मिलता है।
इन निर्देशों से स्पष्ट है कि किसी क्षपणक नामा वैयाकरण ने कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था ।
परिचय तथा काल कालिदासविरचित 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक ग्रन्थ में विक्रम को सभा के नवरत्नों के नाम लिखे हैं। उन में एक अन्यतम नाम क्षपणक भी हैं। कई ऐतिहासिकों का मत है कि जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का ही दूसरा नाम क्षपणक है। सिद्धसेन दिवाकर विक्रम का समकालिक है,यह जैन ग्रन्यों में प्रसिद्ध है । सिद्धसेन अपने समय का महान् पण्डित था । जैन आचार्य देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्र नामक व्याकरण में प्राचार्य सिद्धसेन का व्याकरण विषयक एक मत उदधत किया है। उससे प्रतीत होता है कि सिद्धसेन दिवाकर ने
कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था। अतः बहत सम्भव है, क्षपणक १. और सिद्धसेन दिवाकर दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हों। यदि यह
ठीक हो, तो निश्चय ही क्षपणक महाराज विक्रम का समकालिक होगा।
प्राचीन वैयाकरणों के अनुकरण पर क्षपणक ने भी अपने शब्दानु१. तन्त्रप्रदीप १॥ ४॥ ५५ ॥ भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६३ पर
२५ उद्धृत ।
२. तन्त्रप्रदीप, धातुप्रदीप की भूमिका में ४।१ । १५५ संख्या निर्दिष्ट है, पुरुषोतमदेव ने परिभाषावृत्ति की भूमिका में ४ । १ । १३५ संख्या दी है ।
३. धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहशङ्खुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः । ख्यातो वराहमिहरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।। २० । १० ।।
४. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० २४४ । ५. वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५।१।७॥