SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 714
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६७७ ५ वंश तथा शाकटायन नाम का हेतु - पाणिनि का एक सूत्र है, गोषदादिभ्यो वुन् ( ५। २ । ६२ ) इससे गोषद् आदि से मत्वर्थ में अध्याय अथवा अनुवाक अर्थ गम्यमान होने पर वुन् प्रत्यय होता है । ' गोषद्' शब्द जिस अध्याय अथवा अनुवाक में होगा, वह 'गोष - दकः' कहलायेगा । इसी प्रकार इषेत्वक: देवस्यत्वकः श्रादि । पाल्यकीर्ति ने इस गोषदादिगणनिर्देशक सूत्र के स्थान में घोषदादेव' च्' ( ३ | ३ | १७८ ) सूत्र पढ़ा है । इस प्रकार उसने प्राचीन परम्पराप्राप्त 'गोषद्' शब्द को हटाकर 'घोषद्' का निर्देश किया है । यह विशिष्ट परिवर्तन किसी प्रतिमहत्त्वपूर्ण परिस्थिति का सूचक है । मैत्रायणी संहिता १ । १ । २ और काठक संहिता १ । २ का आदि १० मन्त्र है - गोषदसि । इसमें ' गोषद' शब्द - समूह श्रुत है । तैत्तिरीय संहिता १ । १ । २ में पाठ है- यज्ञस्य घोषदसि । इसमें 'घोषद्' शब्द श्रुत है । मन्त्रों की इस तुलना और पाणिनि तथा पाल्यकीर्ति के सूत्र - पाठों की तुलना करने से प्रतीत होता है कि पाल्यकीर्ति मूलतः तैत्तिरीय शाखा अध्येता ब्राह्मण कुल का था और इसका गोत्र 'शाक - १५ टायन' था । ब्राह्मण धर्म का परिवर्तन हो जाने पर भी पाल्यकीर्ति के लिये शाकटायन गोत्रनाम का व्यवहार होता रहा । ऐसी अवस्था में शाकटायन के लिये गोत्र-सम्बन्ध वाचक शकट- पुत्र अथवा शकटाङ्ग प्रादि पदों का प्रयोग युक्त है । काल २० 'ख्याते दृश्ये " सूत्र की अमोघा वृत्ति में 'प्ररुणद्देवः पाण्ड्यम्' और 'श्रवहदमोघवर्षोऽरातीन्' उदाहरण दिये हैं । द्वितीय उदाहरण में अमोघवर्ष ( प्रथम ) द्वारा शत्रुओं को नष्ट करने की घटना का उल्लेख है । ठीक यही वर्णन राष्ट्रकूट के शक सं० ८३२ ० ( वि० सं० ε६७) के एक शिलालेख में 'भूपालान्' कण्टकाभान् वेष्टयित्वा २५ दाह' के रूप में किया है । शिलालेख अमोघवर्ष के बहुत पश्चात् १. शाकटायन व्याकरण की प्रमोघा तथा चिन्तामणि वृत्तियों में घोषडा - देव' च् पाठ है । वह अशुद्ध है, क्योंकि 'घोषड' किसी शाखा में उपलब्ध नहीं होता है । हैम ने पाल्कीति का अनुसरण करते हुए घोषडादि का ही निर्देश किया है । २. शाकटायन ४ । ३ । २०७ ।। ३. शिलालेख का मूलपाठ (भूपालात्' है, यह प्रत्यक्ष अपपाठ है । ३०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy