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________________ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २५१ पढ़ने पर वे अनुष्टुप् के दो चरण बन जाते हैं । उत्तर सूत्र में चकार से 'हन्ति' अर्थ का समुच्चय होता । अतः पाणिनीय पद्धत्यनुसार सूत्ररचना 'तिष्ठति च' ऐसी होनी चाहिए। काशिकाकार ने लिखा हैचकारो भिन्नक्रमः' प्रत्ययार्थ समुच्चिनोति । प्रतीत होता है पाणिनि ने ये दोनों सूत्र इसी रूप में किसी प्राचीन छन्दोबद्ध व्याकरण से लिये ५ हैं । छन्दोरचना में चकार को यहीं रखना आवश्यक है, अन्यथा छन्दोभङ्ग हो जाता है । द्वितीय उद्धरण में पाणिनीय सूत्र के 'नियुक्त' पद में से 'नि' का परित्याग करने से दो सूत्र अनुष्टुप् के दो चरण बन जाते हैं। तृतीय उद्धरण पाणिनीय सूत्र का एकदेश है । यह अनुष्टुप् का का एक चरण है। इस में उदय शब्द इस बात का स्पष्ट द्योतक है कि यह अक्षररचना पाणिनि की नहीं है । अन्यथा वह 'नोदात्तस्वरितयोः' इतना लिख कर कार्यनिर्वाह कर सकता था। ऋक्प्रातिशाख्य ३।१७ में पाठ है-स्वर्यतेऽन्तहितं न चेदुदात्तस्वरितोदयम् । सम्भव है पाणिनि ने इसी का अनुकरण किया हो । चौथा उद्धरण भी पाणिनि के दो सूत्रों का है, जो अनुष्टप् का एक चरण है। श्लोकबद्ध रचना १५ के कारण ही 'वृद्धि' शब्द का पूर्व प्रयोग हुआ है, जब कि अन्यत्र संज्ञी के निर्देश के पश्चात् संज्ञा का निर्देश किया जा सकता है।' ___ ऐसे श्लोकबद्ध सूत्रांश पाणिनीय धातुपाठ में भी मिलते हैं। इन का निर्देश २१ वें अध्याय में किया है। आपिशलि के कुछ सूत्र मिले हैं, वे पाणिनीय सूत्रों से बहुत २० मिलते हैं । पाणिनीन शिक्षासूत्र भी प्रापिशल शिक्षासूत्रों से बहुत .... समानता रखते हैं। पाणिनि शिक्षा का वृद्ध पाठ अधिक समान है।" पाणिनि से प्राचीन कोई सम्पूर्ण व्याकरण सम्प्रति उपलब्ध नहीं। । . १. तुलना करो—ऋक्प्रातिशाख्य १।२६॥ उब्वटभाष्य-चकारो भिन्नक्रमः समुच्चयार्थीयः। २. अत एव चान्द्रव्या० ३।४।३३ में 'परिपन्थं तिष्ठति च' पाठ है । ऐसा ही जैन शाकटायन ३।२।२३ में भी पाठ है। ३. तदेतदेकमाचार्यस्य मंगलार्थ मृष्यताम् (१।१।१) भाष्यवचन के आधार पर 'अपृक्त एकाल्प्रत्ययः' को कैयट आदि संज्ञासूत्र न मानकर परिभाषासूत्र मानते हैं। यह उनकी भूल है। संभव है यह भी किसी प्राचीन श्लोकबद्ध व्याकरण का अंश हो । उसी के अनुरोध से संज्ञा का पूर्व प्रयोग हो । ४. शिक्षा के वृद्ध और लघु दो पाठ हैं।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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