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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
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माने हैं । हमारा विचार है कि कातन्त्रवृत्तिकार और निरुक्तवृत्तिकार दोनों एक हैं। इसमें निम्न हेतु हैं -
१. दुर्गाचार्य विरचित निरुक्तवृत्ति के अनेक हस्तलेखों के अन्त ... में दुर्गसिंह अथवा दुर्गसिंह्म नाम उपलब्ध होता है।'
२. दोनों ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ को वृत्ति कहते हैं । इससे इन ५ दोनों के एक होने की संभावना होती है।
३. दोनों ग्रन्थों के रचयिताओं के लिये 'भगवत्' शब्द का व्यवः हार मिलता है।
४. दोनों ग्रन्थकारों की एकता का उपोद्वलक निम्न प्रमाण उपलब्ध होता है
निरुक्त १ । १३ की वृत्ति में दुर्गाचार्य लिखता है
'पाणिनीया भूइति प्रकृतिमुपादाय लडित्येतं प्रत्ययमुपाददते ततः कृतानुबन्धलोपस्यानच्कस्य लस्य स्थाने तिबादीनादिशन्ति ।......... अपरे पुनर्वैयाकरणा लटमकृत्वैव तिबादीनेवोपावदते । तेषामपि हि . शब्दानुविधाने सा तन्त्रशैली'। .
इस उद्धरण में पाणिनीय प्रक्रिया की प्रतिद्वन्द्वता में जिस प्रक्रिया का उल्लेख किया है, वह कातन्त्रव्याकरणानुसारिणी है। कातन्त्र में धातु से लट आदि प्रत्ययों का विधान न करके सीधे 'तिप' आदि प्रत्ययों का विधान किया है। उससे स्पष्ट है कि निरुक्तवृत्तिकार कातन्त्रव्याकरण से भले प्रकार परिचित था।
५. कातन्त्रवृत्तिकार दुर्गसिंह का काल सं० ६००-६८० के मध्य में है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । हरिस्वामी ने सं० ६९५ में शतपथ
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१. डा० लक्ष्मणस्वरूप सम्पादित मूल निरुक्त की भूमिका पृष्ठ ३० ।
२. निरुक्तवृत्तिकार-तस्य पूर्वटीकाकारैर्बर्बरस्वामिभगवदुर्गप्रमतिभिः - निरुक्त स्कन्द टीका भाग १, पृष्ठ ४ ।...."प्राचार्यभगवद. २५ दुर्गस्य कृतौ .... (प्रत्येक अध्याय के अन्त में) । कातन्त्रवृत्तिकार-भगवान वृत्तिकारः श्लोकमेवं कृतवान् देवदेवमित्यादि । कातन्त्रवृत्तिटीका, परिशिष्ट पृष्ठ ४६५ ।