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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
की कई विभिन्न व्याख्याएं उद्धृत की हैं । यथा
अभ्रकुसादीनामिति वक्तव्यम् । भ्रुकुसः, भ्रूकुंसः, भ्रुकुटि; भृकुटि: । ___ अपर माह-प्रकारो भ्रूकुसादीनामिति वक्तव्यम । भ्रकुसः, भ्रकुटिः । ६।३।६१॥ ___ यहां एक व्याख्या में वार्तिकस्थ 'अ' वर्ण निषेधार्थक है, और दूसरी व्याख्या में 'अ' का विधान किया है।
इसी प्रकार महाभाष्य १११११० में सिद्धमनच्त्वाद् वाक्यपरिसमाप्तेर्वा' वार्तिक की दो व्याख्याएं उद्धृत की हैं।
महाभाष्य २।१११ में 'समर्थतराणां वा' वार्तिक की 'अपर आहे लिख कर तीन व्याख्याएं उधृत की हैं । ___ इन उद्धरणों से व्यक्त है कि महाभाष्य से पूर्व वार्तिकों पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई थीं। केवल कात्यायन के वार्तिक पाठ
पर न्यूनातिन्नून तीन व्याख्याएं महाभाष्य से पूर्व अवश्य विद्यमान १५ थीं। इसी प्रकार भारद्वाज, सौनाग आदि के वार्तिकों पर भी अनेक
भाष्य ग्रन्थ लिखे गये होंगे। यह प्राचीन महतो ग्रन्थराशि इस समय सर्वथा लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों वा ग्रन्थकारों के नाम तक भी ज्ञात नहीं हैं।
__ भर्तृहरि की विशिष्ट सूचना-भर्तृहरि ने अनेक भाष्यों की २० सूचना-सूत्राणां सानुतन्त्राणां भाष्याणां च प्रणेतृभिः' कारिका में
दी हैं। इसका भाव यह है कि सूत्रों, अनुतन्त्रों (वार्तिकों) और भाष्यों के प्रणेताओं........"
अर्वाचीन वार्तिक व्याख्याकार महाभाष्य की रचना के अनन्तर भी कई निद्वानों ने वार्तिकों २५ पर व्याख्याएं लिखीं, परन्तु हमें उन में से केवल तीन व्याख्याकारों का ज्ञान है
१. हेलाराज हेलाराजकृत वाक्यपदीय की टीका से विदित होता है कि उस ने वार्तिकपाठ पर 'वातिकोन्मेष' नाम्नी एक व्याख्या लिखी ३० थी। वह लिखता है
१. वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड, २३ ।