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बारहवां अध्याय
अष्टाध्यायी के वृत्तिकार सूत्र-ग्रन्थों की रचना में अत्यन्त लाघव से कार्य लिया जाता है। 'सूत्र' शब्द 'सूत्र वेष्टने' चौरादिक ण्यन्तधातु से 'अच्' अथवा पक्षान्तर' में 'घ' प्रत्यय होकर बनता है । प्राचीन ग्रन्थकार सूत्र शब्द ५ का अर्थ 'सूचनात् सूत्रम्" भी दर्शाते हैं। तदनुसार सूत्र-तन्तु के अवयवों के समान अनेक अर्थों को वेष्टित अपने में गुम्फित करने वाले अथवा विस्तृत अर्थों की सूचना देनेवाले संकेतमात्र सूत्रों का अभिप्राय हृदयंगम करने वा कराने के लिए व्याख्यान-ग्रन्थों की भावश्यकता होती है । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस प्रकार के व्या- १० ख्यान-ग्रन्थों का स्वरूप निम्न शब्दों में प्रकट किया है- 'न केचलं चर्चापदानि व्याख्यानम् =वृद्धिः प्रात् ऐज् इति । कि तहि ? 'उदाहरणम् प्रत्युदाहरणम्, वाक्याध्याहारः' इत्येतत् समुदितं . व्याख्यानं भवति'।
अर्थात्-व्याख्यान में पदच्छेद, वाक्याध्याहार (पूर्वप्रकरणस्थ १५ पदों की अनुवृत्ति वा सूत्रबाह्य पद का योग) उदाहरण और प्रत्युदाहरण होने चाहिएं। । पञ्चधा व्याख्यान-वैयाकरणों में एक श्लोक प्रसिद्ध है
'पदच्छेदः पदार्थोक्तिविग्रहो वाक्ययोजना।
पूर्वपक्षसमाधानं व्याख्यानं पञ्चलक्षणम्' ।' अर्थात्-पदच्छेद, पदों का अर्थ, समस्तपदों का विग्रह, वाक्ययोजना, पूर्वपक्ष और समाधान ये पांच व्याख्यान के अवयव हैं।
१. एरजण्यन्तानाम् इति काशिका । ३३३॥५६॥
२. इसी लक्षण को किसी ने विस्तार से इस प्रकार कहा है- 'लघुनि सूचितार्थानि स्वल्पाक्षरपदानि च । सर्वतः सारभूतानि सूत्राण्याहुर्मनीषिणः ॥ २५ भामती (वेदान्त १११११) में उद्धृत। ३. महाभाष्य ११.प्रा० १॥ .. ४. भाषावृत्ति की सृष्टिधर-विरचित विवृति में (भाषावृत्ति के प्रारम्भ में पृष्ठ १६ पर)।
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