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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
षविधि व्याख्यान-नागेशकृत 'उद्योत की छायाटीका' के आरम्भ में 'षड्विधा व्याख्या' का निर्देश मिलता है। इस षड्विधा व्याख्या के तीन प्रकार छायाकार ने 'विष्णुधर्मोत्तर' से उधृत किये
इन वचनों से स्पष्ट है कि सूत्रग्रन्यों के प्रारभिक व्याख्यानों में पदच्छेद, पदार्थ, समास-विग्रह, अनुवृत्ति, वाक्ययोजना=अर्थ, उदाहरण, प्रत्युदाहरण, पूर्वपक्ष और समाधान ये अंश प्रायः रहा करते थे। इसी प्रकार के लघु-व्याख्यानरूप ग्रन्थ 'वृत्ति' शब्द से व्यवहृत
होते हैं। १० पाणिनीय अष्टाध्यायी पर प्राचीन अर्वाचीन अनेक प्राचार्यों ने
वृत्तिग्रन्थ लिखे हैं। पतञ्जलि-विरचित महाभाष्य के अवलोकन से विदित होता है कि उससे पूर्व अष्टाध्यायी पर अनेक वृत्तियों की रचना हो चुकी थी। महाभाष्य ११११५६ में लिखा है
'यत्तदस्य योगस्य मूर्धाभिषिक्तमुदाहरणं तदपि संगृहीतं भवति ? १५ किं पुनस्तत् ? पट्ट्या मृद्व्येति ।'
इस पर कैयट लिखता है-'मूर्धाभिषिक्तमिति- सर्ववृत्तिषदाहतत्वात् ।'
प्राचीन वृत्तियों का स्वरूप अष्टाध्यायी की प्राचीन वृत्तियों का क्या स्वरूप था ? इस पर २० जिन कतिपय वचनों से प्रकाश पड़ता है उन्हें हम नीचे उद्धृत करते हैं
१. वृद्धिरादैच् (प्रा० १११।१) के महाभाष्य में लिखा है
इहैव तावद् व्याचक्षाणा पाहः-वृद्धिशब्दः संज्ञा प्रादेचिनः संज्ञिनः । अपरे पुनः सिचिवृद्धिः (७।२।१) इत्युक्त्वाऽऽकारकारौकारा२५ बुदाहरन्ति।
.' इसका तत्पर्य यह है कि कुछ वृत्तिकार इसी सूत्र पर 'प्राकार ऐकार औकार की वृद्धिसंज्ञा होती है ऐसा कहते हैं (उदाहरण नहीं ___१. यह निबन्ध 'अोरियण्टल कालेज मैगजीन' लाहौर के नवम्बर १९३९
के अङ्क में छपा था। अब यह शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'मीमांसक लेखा३० वली' भाग २ (वेदाङ्ग-मीमांसा) में छपेगा।