________________
१०
संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
कृष्णचरित के रचयिता समुद्रगुप्त की सम्मति
महाराज समुद्रगुप्त ने अपने कृष्णचरित के आरम्भ में मुनिकविवर्णन में वार्तिककार के लिये लिखा है
२२६
न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवतिकैर्यः ।
अर्थात् -- कात्यायन ने अपने वार्तिकों द्वारा पाणिनीय व्याकरण को पुष्ट किया था ।
इससे भी स्पष्ट है कि अर्वाचीन प्रार्षज्ञान-विहीन वैयाकरणों का कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा पाणिनीय व्याकरण के खण्डन का उद्घोष सर्वथा अज्ञानमूलक है।
श्राधुनिक भारतीयों द्वारा पाणिनि की झालोचना - जिस पाणिनीय तन्त्र की प्रशंसा महाभाष्यकार पतञ्जलि जैसे पदवाक्यप्रमाणज्ञ विद्वान् करते हैं, और कतिपय पाश्चात्त्य विद्वान् भी पाणिनि की सूक्ष्मेक्षिका का वर्णन करते हुए नहीं अघाते, उस पाणिनि को कतिपय विद्वान् अज्ञानी कहने में अपना गौरव समझते हैं ।
१५
बट कृष्ण घोष ने इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली भाग १० में लिखा है -- पाणिनि ऋक्प्रातिशाख्य को विना समझे नकल करता है ।'
पं० विश्वबन्धु शास्त्री ने भी अथर्व प्रातिशाख्य के आरम्भ में शुक्ल यजुष प्रातिशाख्य के एक सूत्र की पाणिनि के सूत्र के साथ २० तुलना करके लिखा है - - यहां पाणिनि के व्याकरण में न्यूनता रह गई है' । द्र० – पृष्ठ ३४ ॥
वस्तुतः इन महानुभावों ने न प्रातिशाख्यों को समझा है, और न पाणिनीय शास्त्र को । अपने ज्ञान के दर्प में ये पाणिनि को अज्ञ या अल्पज्ञ सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं । वस्तुत; दोनों स्थानों पर २५ पाणिनि के निर्देश में कोई दोष नहीं है ।
पाणिनीय तन्त्र का आदि सूत्र
कैट आदि वैयाकरणों का कथन है कि 'अथ शब्दानुशासनम् ' वचन भाष्यकार का है ।' पाणिनीय तन्त्र का आरम्भ 'वृद्धिरादैच्'
१. निर्णयसागर मुद्रित महाभाष्य भाग १ पृष्ठ ६ । पदमञ्जरी 'अथ ३० शब्दानुशासनम्' ; भाग १, पृष्ठ ३ ।