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२६ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २२५ प्रकाश' नाम्नी व्याख्या के लेखक शिवरामेन्द्र सरस्वती हो एक मात्र ऐसे वैयाकरण हैं जिन्होंने वार्तिककार और भाष्यकार द्वारा उद्भावित प्रत्याख्यान को प्रकारान्तर से अर्थात् सूत्र के विना भी सूत्रोक्त उदाहरणों की सिद्ध दर्शाना माना है। शिवरामेन्द्र सरस्वती ने न धातुलोप आर्धधातुके (१।१।४) की व्याख्या में लिखा है____अत्रेदमवधेयम्-लोलुवः पोपुव इत्यादीनि प्रकृतसूत्रोदाहरणानि यानि वृत्तिका निर्दिष्टानि तानि सूत्रं विनापि साधयितुं शक्यन्त इत्येतावन्मात्राभिप्रायेण 'अनारम्भो वा' इत्यादिभाष्यं प्रवृत्तं, न तु सर्वथा सूत्रं मास्त्विति । ____ अर्थात्-वृत्तिकारों द्वारा निर्दिष्ट उदाहरण सूत्र के विना भी १० सिद्ध किये जा सकते हैं इतने ही अभिप्राय से 'अनारम्भो वा' भाष्य प्रवृत्त हुआ है, न कि सूत्र सर्वथा न होवे।
इसी सिद्धान्त का निर्देश शिवरामेन्द्र सरस्वती ने इसी सूत्र के भाष्य की व्याख्या में आगे पुनः किया है
न च सर्वत्र....."समस्तशास्त्रस्य प्रत्याख्येयकर्तव्ये भाष्यकृता १५ व्याकरणान्तरमेव कतुं युक्तम्, न तु पाणिनीयप्रतिष्ठापनम् ।...." तस्मात् स्थितमिदं सूत्रम् ।
अर्थात-..... समस्तशास्त्र के प्रत्याख्येय होने पर भाष्यकार को व्याकरणान्तर का ही प्रवचन करना युक्त था, न कि पाणिनीय तन्त्र का प्रतिष्ठापन ।..."इसलिये यह सूत्र (१।१।४) स्थित है २० [प्रत्याख्यात नहीं है] । __प्रकारान्तर से समाधान करने की दृष्टि से वर्धमान गणरत्नमहोदधि में लिखता है
द्वितीयतृतीयेत्यादिसूत्रं बृहत्तन्त्रे व्यर्थम् । गणसमाश्रयणमेव श्रेयः । पृष्ठ ७६ ।
२५ अर्थात्-बृहत्तन्त्र (पाणिनीय तन्त्र) में द्वितीयतृतीय (२।२।३) सूत्र व्यर्थ है । उसका गणपाठ में आश्रयण करना अच्छा है ।
कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा प्रदर्शित प्रकारान्तर-निर्देश से उत्तरवर्ती चन्द्रगोमी प्रभृति प्राचार्यों ने बहुत लाभ उठाया है। यह उत्तरवर्ती व्याकरण ग्रन्थों की तुलना से स्पष्ट है ।