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________________ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार' ५५७ जयपुराधीश सवाई माधवसिंह की माता रूपकुमारी की आज्ञा से अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी । इस का संशोधन पं० शिवदत्त दाधिमथ ने किया और लाहौर के 'मुफीद प्राम' प्रेस में छप कर प्रकाशित हुई । पुस्तक पाणिनीय व्याकरणाध्येताओं को विना मूल्य दी गई । पुस्तक प्रकाशन का काल मुख पत्र पर नहीं छपा है । सम्भवतः यह सन् १९२८ (वि० १९८५) में वा उस से पूर्व छपी थी। क्योंकि इस काल में अध्ययन करते हुए मैंने इस का उपयोग किया था। ___ इस वृत्ति में संस्कृत में संक्षिप्त वृत्ति, उदाहरण तथा उपयोगी वार्तिकों का भी सोदाहरण सन्निवेश है। इस की विशेषता यह है कि वैदिक और स्वर प्रकरण के सूत्रों के उदाहरण सस्वर छापे गये हैं। पाणिनीय व्याकरण का अष्टाध्यायी क्रम से व्याकरण अध्ययन करने वालों के लिये शास्त्र की प्रावृत्ति के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है। लेखक को व्याकरण शास्त्र की उपस्थिति रखने में इस वृत्ति के पाठ से बहुत सहायता मिली । वर्षों तक मैं इस वृत्ति का पारायण करता रहा। १० ८. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु (सं० १९४९-२०२१ वि०) गुरुवर श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने लगभग ४० वर्ष तक अष्टाध्यायी महाभाष्य के क्रम से शतशः छात्रों को पाणिनीय व्याकरण पढ़ाने से प्राप्त विशिष्ट अनुभव के पश्चात् सं० २०१७ में २० अष्टाध्यायी पर वृत्ति लिखने का उपक्रम किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रष्टाध्यायी की प्रथम भावृत्ति पढ़ने पढ़ाने की विधि सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार लिखी है_ "तदनन्तर ध्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ, . जैसे 'वद्धिरादेच'। फिर पदच्छेद, जैसे 'बद्धिः प्रात् ऐच वा प्रादच । २५ फिर समास-'पाच्च ऐच्च प्रादेच्' । और अर्थ जैसे 'प्रादेचां वृद्धिसंज्ञा क्रियते, अर्थात् आ, ऐ, औ की वृद्धिसंज्ञा [की जाती है । 'तः परो यस्मात्स तपरस्तादपि परस्तपरः' तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो वह तपर कहाता है । इससे पा सिद्ध हुआ, जो आकार से परे त, और त से परे ऐच दोनों तपर हैं । तपर का प्रयोजन ३० यह है कि ह्रस्व और प्लुत की वृद्धि संज्ञा न हुई।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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