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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उदाहरण- 'भागः' यहां भज' धातु से 'घन' प्रत्यय के परे 'घ, ' की इत्संज्ञा होकर लोप हो गया। पश्चात् 'भज् अ यहां जकार से पूर्व भकारोत्तर प्रकार को वृद्धिसंज्ञक प्राकार हो गया है, तो 'भाज्' पुनः 'ज्' को ग् हो प्रकार के साथ मिलके 'भागः' ऐसा प्रयोग हुआ।
'अध्यायः'. यहां अधिपूर्वक 'इङ' धातु के ह्रस्व इ के स्थान में 'घ' प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि और उसको 'पाय' हो मिलके अध्यायः।
'नायकः' यहां 'नीम्' धातु के दीर्घ ईकार के स्थान में ‘ण्वुल्' १० प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि और उसको 'प्राय' होकर मिलके 'नायकः' ।
और 'स्तावकः' यहां 'स्तु' धातु से ‘ण्वुल' प्रत्यय होकर ह्रस्व उकार के स्थान में 'नौ' वृद्धि [और] 'प्राव' आदेश होकर प्रकार में मिल गया, तो 'स्तावकः'। . . .
__ 'कृञ्' धातु से आगे ‘ण्वुल' प्रत्यय, 'ल' की इत्संज्ञा होके लोप, १५ 'वु' के स्थान में अक प्रादेश, प्रौर. ऋकार के स्थान में 'आर' वृद्धि
होकर 'कारकः' सिद्ध हुअा। ............... ___ जो-जो सूत्र आगे-पीछे के प्रयोग में लगें, उनका कार्य सब बतलाता जाय । और सिलेट अथवा लकड़ी के पट्टे पर दिखला. दिखलाके कच्चा रूप धरके, जैसे-'भज+घ+सु' इस प्रकार धेरैके प्रथम प्रकार का लोप, पश्चात् घकार को, फिर ञ् का लोप होकर 'भज्++सु' ऐसा रहा । फिर [अ को प्राकार वृद्धि और] 'ज्" के स्थान में 'ग्' होने से 'भाग्+अ+सु', पुनः प्रकार में मिल जाने से 'भाग+सु' रहा । अब उकार की इत्संज्ञा, 'स्' के स्थान में 'रु' होकर
पूनः उकार की इत्संज्ञा और लोप हो जाने के पश्चात् 'भागर' ऐसा २५ रहा । अव रेक के स्थान में (:) विसजनीय होकर 'भागः' यह रूप
सिद्ध हुअा। जिस-जिस सूत्र से जो-जो कार्य होता है. उस-उस को पढ़ पढ़ाके और लिखवा कर कार्य कराता जाय । इस प्रकार पढ़ने-पढ़ाने से बहुत शीघ्र दृढ़ बोध होता है।"१
__इस निर्देश के अनुसार प्राचार्यवर ने अपने अष्टाध्यायोभाष्य३० १. सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास, आर्यसमाज शताब्दी सं० २ (रा.
ला० क० ट्र०), पृष्ठ १११-११२ ।