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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
पादी उणादि के प्राचीन वृत्तिकार (माणिक्यदेव) ने उणादि सूत्रों में जहां-जहां कित्, ङित् चित्, णित् प्रादि पद पठित हैं, वहां सर्वत्र कित्संज्ञक, डित्संज्ञक, चित्संज्ञक, णित्संज्ञक अर्थ ही किये हैं ।
महाभाष्य के इस प्रकरण पर हमने 'अष्टाध्यायी की महाभाष्य से प्राचीन वत्तियों का स्वरूप' नामक निबन्ध में विस्तार से लिखा हैं।' महाभाष्य के अध्ययन से यह सुस्पष्ट विदित होता है कि महाभाष्य की रचना से पूर्व अष्टाध्यायी को न्यून से न्यून ४-५ वृत्तियां अवश्य बन चुकी थीं। महाभाष्य' के अनन्तर भी अनेक वैयाकरणों ने अष्टाध्यायो की वृत्तियां लिखी हैं। ____ महाभाष्य से अर्वाचीन अष्टाध्यायी की जितनी वृत्तियां लिखी गईं, उनका मुख्य आधार पातञ्जल महाभाष्य है। पतञ्जलि ने पाणिनीयाष्टक की निर्दोषता सिद्ध करने के लिये जिस प्रकार अनेक सूत्रों वा सूत्रांशों का परिष्कार दर्शाया, उसी प्रकार उसने कतिपय
सूत्रों की वृत्तियों का भी परिष्कार किया । अतः महाभाष्य से उत्तर४ कालीन वृत्तियों से पाणिनीय सूत्रों को उन प्राचीन सूत्रवृत्तियों का
यथावत् परिज्ञान नहीं होता, जिनके आधार पर महाभाष्य की रचना हुई । इस कारण प्राचीन अनुपलब्ध वृत्तियों के आधार पर लिखे महाभयष्य के अनेक पाठ अर्वाचीन वृत्तियों के अनुसार असंबद्ध उन्मत्तप्रलापंवत् प्रतीत होते हैं ।, यथा
अष्टाध्यायी के कटाय समणे (३ । १ । १४) सूत्र की वृत्ति काशिका में 'कष्टशब्दाच्चतुर्थीसमर्थात् क्रमणेऽर्थेऽनार्जवे क्यङ् प्रत्ययो भवति' लिखी है.। जिस छात्र ने यह वृत्ति पड़ी है, उसे इस सूत्र के महाभाष्य को 'कष्टायेति कि निपात्यते ? 'कष्टशब्दाच्चतुर्थीसमर्थात् क्रमणेऽनार्जवे क्यङ् निपात्यते 'पङ क्ति देखकर आश्चर्य होगा कि इस सूत्र में निपातन का कोई प्रसङ्ग ही नहीं, फिर महाभाष्यकार
ने निपातनविषयक आशङ्का क्यों उठाई ? इसलियो महाभाष्य का '' अध्ययन करते समय इस बात का विशेष ध्यान प्राबश्य रखना चाहिये।
अष्टाध्यायी पर रची गई महाभाष्य से प्राचीन और पर्याचीन ३० वृत्तियों में से जितनी वृत्तियों का ज्ञान हमें हो सका, उन का संक्षे, से वर्णन करते हैं
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