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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
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सम्प्रति अनुपलब्ध है । प्रागे हम छुच्छुक भट्ट विरचित एक वृत्ति का उल्लेख करेंगे। क्या ये दोनों वृत्ति एक हो सकती हैं ? गुरुपद हालदार के मतानुसार उग्रभूति विरचित 'शिष्यहितान्यास' चिच्छुवृत्ति पर लिखा गया था।'
६-उमापति (सं० १२०० वि०) उमापति ने भी कातन्त्र पर एक व्याख्या लिखी थी। यह उमापति लक्ष्मणसेम के सभ्यों में प्रयतम है । अतः इसका काल सामान्यतया विक्रम की १२ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।' उमापति ने 'पारिजातहरण' काव्य भी लिखा था। इसका उल्लेख ग्रियर्सन ने १० किया है।
७-जिनप्रभ सूरि (सं० १३५२ वि०) प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने कायस्थ खेतल की अभ्यर्थना पर कातन्त्र की 'कातन्त्रविभ्रम' नाम्नी टीका लिखी थी। इस टीका की रचना १५ सं० १३५२ में देहली में हुई थी। ग्रन्थकारने रचना काल तथा स्थान का निर्देश इस प्रकार किया है
पक्षेषुशक्तिशशिभन्मितविक्रमाब्दे, धाङ्किते हरतियो पुरि योगिनीनाम् । कातन्त्रविभ्रम इह व्यतनिष्टटीकाम्,
. २० अप्रौढधीरपि जिनप्रभसूरिरेताम् ॥ डा० बेल्वाल्कर ने इसे त्रिलोचनदास को पत्रिका की टीका माना है।
१. वाररुचवृत्तर प्राय: ३०० वत्सर परे दौर्गवृत्ति एवं कश्मीरि चिच्छवृत्ति रचित हया छ। वर्वमानेर कातन्त्रविस्तर वृति चिच्छवृत्तिर परवर्ती । २५ व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ३६५।।
२. विशेष द्र०-सं० व्या० इतिहास भाग २, पृष्ठ २१८-२१६ तृ० सं० । ३. जैन सिद्धान्तभास्कर भाग १३, किरण २, पृष्ठ २०५ । ४. सिस्टम्स् माफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं० ६६ ।