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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
कृत कातन्त्र वृत्ति पञ्जिका उद्धृत है। लेखक ने इस को १६ वीं शताब्दी का लिखा है। यह चिन्त्य है । लखनऊ के पूर्व निर्दिष्ट हस्तलेख के अन्त में लेखन काल सं० १४३६ निर्दिष्ट है यथा -
'इति पण्डितश्रीगोल्हणविरचितायां चतुष्कवृत्तिटिप्पनिकायां प्रकरण समाप्तमिति । शुभं भवतु ॥ संवत् १४३६ वर्षे मावशुदि शमामेस (?) लक्ष्मणपुरे प्रागमिकामरतिलकेन चतुष्कवृत्तिटिप्पनिका प्रात्मपठनार्थ लिखिता।
अतः गोल्हण निश्चय ही सं० १४३६ से पूर्ववर्ती है।
इस टिप्पण के अन्त में प्रत्याहारबोधक सूत्र तथा प्रत्याहार सूत्र १० उदधत हैं। ये किस व्याकरण के हैं,और यहां इनकी क्या आवश्यकता है, यह विचारणीय है । है-इनका पाठ पूर्व पृष्ठ ६२७ पर देखें।
७-सोमकीति आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य सोमकीर्ति ने कातन्त्र वृत्ति पर 'कातन्त्र वृत्ति पञ्जिका' नाम्नी एक व्याख्या लिखी है । इस का एक ५५ हस्तलेख जैसलमेर में विद्यमान है। इस का देश काल अज्ञात है। द्र०
सं० प्रा० व्या० और कोश की परम्परा, पृष्ठ १२० । ___ कातन्त्र व्याकरण का दुर्गवृत्ति सहित कलकत्ता से जो नागराक्षरों में संस्करण प्रकाशित हुअा था, उसके अन्त में दुर्गवृत्ति के निम्न टीकाकारों वा टीकाओं के कुछ कुछ पाठ उद्धृत किये गये हैं८. काशीराज
१०. लघुवृत्ति ६. हरिरान
११. चतुष्टय प्रदीप इन टोकाकारों वा टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त भी दुर्गवृत्ति पर कुछ टीकाएं उपलब्ध होती हैं। विस्तरंभिया हमने उनका निर्देश नहीं किया है।
५-चिच्छुम-वृत्तिकार (१२ शताब्दी वि० से पूर्व) किसी कश्मीरदेशज विद्वान् ने कातन्त्र व्याकरण पर 'चिच्छमवृत्ति' नाम की व्याख्या लिखी थी। गुरुपद हालदार के मतानुसार - यह वृत्ति वर्धमान कृत 'कातन्त्रविस्तर' वृत्ति से पूर्वभावी है यह