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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
१ - कातन्त्रविभ्रम-प्रवचूर्णि चारित्रसिंह (सं० १६०० वि० ) चारित्रसिंह ने 'कातन्त्रविभ्रम' के कुछ दुर्ज्ञेय भाग पर 'अवचूर्ण' नाम्नी एक टीका लिखी है । ग्रन्थकार ने अन्त में निम्न पद्य लिखे हैं'बाणाविषडिन्दु (१६२५) मितिसंवति धवलक्कपुरवरे समहे । श्रीखरतगण पुष्करसु दिवा पुष्टप्रकाराणाम् ||१|| श्री जिन माणिक्याभिधसूरीणां सकलसार्वभौमानाम् । पट्टेवरे विजयिषु श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिराजेषु ||२|| गीतिः - वाचकमतिभद्रगणेः शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपारमार्थः । चारित्रसहसा धुर्व्यदधाद् श्रवचूर्णमिह सुगमाम् ||३|| यल्लिखितं मतिमान्द्यादनृतं प्रश्नोत्तरेऽत्र किञ्चिदपि । तत्सम्यक् प्राज्ञवरं शोध्यं स्वपरोपकाराय ॥४॥
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इस से स्पष्ट है कि 'कातन्त्र विभ्रम-प्रवचूर्णि' सं० १६२५ में लिखी गयी थी । यह ग्रन्थ पत्राकार में इन्दौर से छप चुका है ।
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इस ग्रन्थ के आरम्भ में सारस्वतसूत्रयुक्त्या का निर्देश है । ग्रन्थ में सारस्वत सूत्र और सिद्धान्त चन्द्रिका ग्रन्थ का भी निर्देश है । कातन्त्र सूत्र सरस्वती के प्रसाद शर्ववर्मा ने प्राप्त किया था ऐसी किवदन्ती प्रसिद्ध होने से सारस्वतसूत्रयुक्त्या में सारस्वत सूत्र से कातन्त्र सूत्रों का ही निर्देश जानना चाहिये । ग्रन्थ भी ' कातन्त्र - २० विभ्रम' पर लिखा गया है। इस से भी यह स्पष्ट है कि इस का सम्बन्ध कातन्त्र व्याकरण के साथ है, न कि सारस्वत व्याकरण के साथ ।
२- कातन्त्रविभ्रमावचूर्णि - गोपालाचार्य (सं० १७०० वि०)
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गोपालाचार्य ने भी कातन्त्र विभ्रम पर अवचूर्णि नाम की टीका २५ लिखी थी । ग्रन्थकार के पिता का नाम नागर नीलकण्ठ था । ग्रन्थकार ने ग्रन्थ लेखन का काल तथा स्वपरिचय इस प्रकार दिया है
संवद्रामरसाद्रि (१७६३ । परिमिते वर्षायने दक्षिणे, पौषेमासि शुचौ तिथि प्रतिपदि प्राङ भौमवारेऽकरोत् । श्रीमन्नागर नीलकण्ठतनयो नाम्नातु गोपालकः, टीकामस्य विशुद्धरम्यसुगमां काव्यस्य दुर्गस्यवं ।।'
१. संस्कृत प्राकृत जैन ब्याकरण और परम्परा, पृष्ठ १११ पर उद्धृत ।