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. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
तात्पर्य यह है कि हरदत्त आन्ध्र प्रदेश के कूचिमञ्चि-अग्रहार का रहनेवाला था। पदमञ्जरी के उत्तरार्ध की रचना के समय वह द्रविड़ देश में चला गया, और शेष जीवन उसने चोल देश में कावेरी नदी के तीर पर विताया।
श्री विद्वदर पद्मनाभ रावजी (प्रात्मकूर-प्रान्ध्र) ने भी ४ । ११॥ ६३ ई० के पत्र में श्री वेङ्कटाचार्य शतावधानी जी के कथन का अनुमोदन किया है। ___ काल-हरदत्त ने अपने ग्रन्य में ऐसी किसी घटना का उल्लेख नहीं किया, जिससे उसके काल का निश्चित ज्ञान हो । कयट के कालनिर्णय के लिये हमने कुछ ग्रन्थकारों का पौवापर्य-द्योतक चित्र दिया है। उसके अनुसार हरदत्त का काल वि० सं० १११५ के लगभग प्रतीत होता है। न्यास के संपादक ने हरदत्त और मैत्रेय दोनों का काल सन् ११०० ई० अर्थात् ११५७ वि० माना है, वह
ठीक नहीं। क्योंकि मैत्रेयरक्षित विरचित 'धातुप्रदीप' पृष्ठ १३१ पर १५ धर्मकीत्तिकृत 'रूपावतार' का उल्लेख है । रूपावतार भाग २
पृष्ठ १५७ पर हरदत्त का मत उद्धृत है। अतः हरदत्त और मैत्रेय. रक्षित दोनों समकालिक नहीं हो सकते।
डा० याकोबी ने भविष्यत्-पुराण के आधार पर हरदत्त का देहावसान ८७८ ई० के लगभग माना है ।
व्याकरण के अन्य ग्रन्थ १. महापदमञ्जरी-पदमञ्जरी १११।२० पृष्ठ ७२ से विदित होता है कि हरदत्त ने एक 'महापदमञ्जरी' संज्ञक व्याख्या रची थी। यह किस ग्रन्थ की टीका थी, यह अज्ञात है । सम्भव, है यह भी काशिका की व्याख्या हो।
१. देखो -पूर्व पृष्ठ ४२४ । २. न्यास की भूमिका, पृष्ठ २६ ।
३. रूपाववतारे तु णिलोषे प्रत्ययोत्सत्तेः प्रागेव कृते सत्येकाच्त्वात यङदाहृतः-चोचर्यत इति । देखो-रूपावतार भाग २, पृष्ठ २०६ ।।
४. कुशब्दे - प्रकूत इति, वेदलोकप्रयोगदर्शनाद् दीर्घान्त एवायं हरदत्ताभिमतः। ५. जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई, भाग २३,पृष्ठ ३१ । ३० . भाष्यवात्तिकविरोधस्तु महापदमजामस्माभिः प्राञ्चितः ।