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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास
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साधु मानते हैं। महाभाष्यकार ने पाणिनीय सूत्रों में भी बहुत्र छान्दस कार्य माना है। निरुक्तकार यास्क मुनि ने स्पष्ट लिखा है-'कई लौकिक शब्दों की मूल प्रकृति धातु का प्रयोग वेद में ही उपलब्ध होता है। इसी प्रकार अनेक वैदिक शब्द विशुद्ध लौकिक धातु से निष्पन्न होते हैं।" इस संमिश्रण से स्पष्ट है कि जिन लौकिक शब्दों ५ की मूल-प्रकृति का प्रयोग केवल वेद में मिलता है, उनका प्रयोग भाषा में कभी अवश्य रहा था। अन्यथा वैदिक धातु से निष्पन्न शब्दों का प्रयोग लोक में कैसे हो सकता है ? और लौकिक धातुओं से वैदिक शब्दों की निष्पत्ति कैसे हो सकती है ? इतना ही नहीं प्राकृतभाषा में शतशः ऐसे प्रयोग विद्यमान हैं जिनकी रूपसाम्यता वैदिक १० माने जाने वाले शब्दों के साथ है। यदि उन वैदिक शब्दों का लोक में प्रयोग न माना जाय तो उनसे अपभ्रंश शब्दों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्यों कि अपभ्रंशों की उत्पत्ति लोकप्रयूक्त पदों के अज्ञानियों द्वारा किये गये अयथार्थ उच्चारण से भी होती है। इस से यह भी मानना होगा कि अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति का आरम्भ उस समय १५ हुआ, जब संस्कृत-भाषा में वैदिक-माने जाने वाले पदों का व्यवहार विद्यमान था। उस समय संस्कृत-भाषा इतनी संकुचित नहीं थी, जितनी सम्प्रति है । अतिपुरा काल में केवल दो भाषाएं थीं। मनु ने उन्हें पार्य। भाषा और म्लेच्छ-भाषा कहा है। हमारा विचार है कि अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति त्रेता युग के प्रारम्भ में हई । वाल्मीकि २० मुनि कृत प्राकृत व्याकरण का विद्यमान होना भी इसमें प्रमाण है।
पं० बेचरदास जीवराज दोषी ने 'गुजराती भाषा नी उत्क्रान्ति' पुस्तक में पृष्ठ ५२-७४ तक प्राकृत और वैदिक पदों की तुलनात्मक कुछ सूचियां दी हैं। उन्होंने उनसे जो परिणाम निकाला है उससे यद्यपि हम सहमत नहीं, तथापि प्रकृत विचार के लिये उनका कुछ २५
१. अथापि भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगमाः कृतो भाष्यन्ते । दमूनाः क्षेत्रसाधा इति । अथापि नैगमेभ्यो भाषिकाः उष्णम्, घृतमिति । २।२॥ तुलना करोघरतिरस्मा अविशेषणोपदिष्टः । स घृतं घृणा धर्म इत्येवं विषयः । महाभाष्य ७।१।६६॥ २. पारम्पर्यादपभ्रंशो विगुणेष्वभिधातृषु । वाक्यपदीय १।१५४॥ ३. म्लेच्छावाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । १०।४५॥