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________________ अष्टाध्यायी के वात्तिककार ३३१ कात्यायन महाराष्ट्र की ओर चला गया हो । और उसका पौत्र वात्तिककार वररुचि कात्यायन दाक्षिण में ही रहता रहा हो। अन्य प्रमाण-वात्तिककार के दाक्षिणात्य होने में एक अन्य प्रमाण भी है। हमने पाणिनीय सूत्रपाठ धातुपाठ और उणादिपाठों के प्रकरण में लिखा है कि इन ग्रन्थों के दाक्षिणात्य औदीच्य और ५ प्राच्य तीन प्रकार के पाठ थे। इनमें प्रथम दो पाठ लघुपाठ हैं, और प्राच्य पाठ वृद्धपाठ है । कात्यायनीय वार्तिक अष्टाध्यायी के लघुपाठ पर ही लिखे गये हैं, यह वात्तिकपाठ की पाणिनीय सूत्रपाठ के लघुवृद्ध पाठों की तुलना से स्पष्ट है । यद्यपि दाक्षिणात्य और प्रौदीच्य दोनों पाठ लघु हैं, तथापि दोनों में कुछ अन्तर भी है । वात्तिकपाठ के १० अष्टाध्यायी के लघुपाठ पर आश्रित होने से भी वात्तिककार का दाक्षिणात्यत्व सुतरां सिद्ध है। डा० सत्यकाम वर्मा ने बेबर मैक्समूलर और गोल्डस्टुकर के मतानुसार उसे प्राग्देशीय माना है। वर्मा जी ने भाष्यकार के कथन की संगति लगाने के लिये कात्यायन गोत्र को दाक्षिणात्य स्वीकार १५ करके भी वात्तिककार को प्राच्य मानने का प्राग्रह किया है। हम बेबर आदि के साध्यसम हेत्वाभासों के आधार पर उन्हें प्राच्य माने या भाष्यकार के कथन को प्रामाणिक माने, यह विचारणीय है। यतः वर्मा जी का एतद्ग्रन्थ-विषयक सारा चिन्तन स्व-ज्ञान के अभाव में पाश्चात्य मत पर आश्रित है, अतः वे उनके मत को छोड़ने में असमर्थ २० क्यों ? वैदेह जनक के साथ उपनिषद् और आरण्यककार याज्ञवल्क्य के सान्निध्य के कारण ? तो क्या वे यह मानते हैं कि वैदेह जनक भी महाभारत से कुछ पहले ही हुए ? क्या सचमुच याज्ञवल्क्य अनेक नहीं हुए ? (सं० व्या० का उद्भव और विकास, पृष्ठ १८६)' । बलिहारी है वर्मा जी के ज्ञान की ! यदि भारतीय इतिहास थोड़ा सा भी पढ़ा होता, तो उन्हें ज्ञात हो जाता कि 'जनक' नाम एक व्यक्ति का नहीं है, कुल का नाम है, और वैदेह देशज विशेषण है। उन्होंने सम्भवत: उपनिषद् में उल्लिखित वैदेह जनक को सीता के पिता ही समझा है । उन्हें मालूम होना चाहिए कि उपनिषत् में श्रुत वैदेह जनक का स्वनाम निमि था और सीता के पिता का नाम सीरध्वज था। ऐतिहासिक तथ्य का ज्ञान न होने से उलटे याज्ञवल्क्य की अनेकता मान बैठे । जबकि सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में दूसरे याज्ञवल्क्य का कहीं भी कोई संकेत नहीं है। .
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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