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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उद्धृत किया है। वह न पूर्णतया वार्तिकपाठ से मिलता है, न भाष्यपाठ से।
१. कात्यायन पाणिनीय व्याकरण पर जितने वातिक लिखे गये, उन में ५ कात्यायन का वार्तिकपाठ ही प्रसिद्ध है। महाभाष्य में मुख्यतया
कात्यायन के वार्तिकों का व्याख्यान है। पतञ्जलि ने महाभाष्य में दो स्थानों पर कात्यायन को स्पष्ट शब्दों में 'वात्तिककार' कहा है।'
पर्याय–पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकाण्डशेष कोष में कात्यायन के १ कात्य, २ कात्यायन, ३ पुनर्वसु, ४ मेधाजित् और ५ वररुचि १० नामान्तर लिखे हैं।
१. कात्य-यह गोत्रप्रत्ययान्त नाम है। महाभाष्य ३।२।३ में वार्तिककार के लिए इस नाम का उल्लेख मिलता है। बौधायन श्रौत ७।४ में भी 'कात्य' स्मृत है ।
. २. कात्यायन-यह युवप्रत्ययान्त नाम है। पूज्य व्यक्ति के १५ सम्मान के लिये उसे युवप्रत्ययान्त नाम से स्मरण करते हैं। महाभाष्य ३।२।११८ में इस नाम का उल्लेख है ।
३. पुनर्दसु-यह नाक्षत्र नाम है । भाषावृत्ति ४।३।३४ में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय लिखा है। महाभाष्य ११।६३ में 'पूनर्वसू
माणवक' नाम मिलता है। परन्तु यह कात्यायन के लिये नहीं है । २०. ४. मेधाजित्-इसका प्रयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया ।
५. वररुचि-महाभाष्य ४।३।१०१ में वाररुच काव्य का वर्णन
१. न स्म पुराद्यतन इति ब्रुवता कात्यायनेनेह । स्मादिविधिः पुरान्तो यद्यविशेषेण भवति, किं बार्तिककारः प्रतिषेधेन करोति-न स्म पुराद्यतन
इति ३।२।११८॥ सिद्धत्येवं यत्त्विदं वार्तिककार: पठति-'विप्रतिषेधात्तु टापो २५ बलीयस्त्वम्' इति एतदसंगृहीत भवति । ७।१।१॥
२. मेधाजित् कात्यायनश्च सः । पुनर्वसुर्वररुचिः । ३. प्रोवाच भगवान् कात्यस्तेनासिद्धिर्यणस्तु ते । ४. वृद्धस्य च पूजायाम् । महाभाष्य वार्तिक ४।१।१६३॥
५. देखो, यही पृष्ठ, ३२२, टि० १। ६. पुनर्वसुर्वररुचिः। ३० ७. तिष्यश्च माणवकः, पुनर्वसू च माणवको तिष्यपुनर्वसवः ।