________________
पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखत प्राचीन प्राचार्य १२३ यथा-वस निवासे, टुप्रोश्वि गतिवृद्ध्योः और वद व्यक्तायां वाचि । पाणिनि इन्हें केवल परस्मैपदी मानता है ।
संख्या ६ प्रमाण से विदित होता है कि काशकृत्स्न के समय ईड और ईल दोनों धातुओं के प्रख्यात के स्वतन्त्र प्रयोग लोक में प्रचलित थे। इसीलिए उसने दोनों धातों को स्वतन्त्र रूप में पढा। ५ परन्तु पाणिति के समय ईड धातु के ही रूप लोकप्रचलित रह गये । अतः उसने ईल का पाठ नहीं किया, केवल ईड धातु ही पढ़ी। इसी प्रकार संख्या ७ के अनुसार काशकृत्स्न के धातूपाठ में वस, शिव और वद धातु को उभयपदी पढ़ना इस बात का प्रमाण हैं कि उसके काल में इन धातुओं के दोनों प्रकार के रूप लोक में प्रचलित थे। पाणिनि १० के समय केवल परस्मैपद के रूप ही अवशिष्ट रह गये थे, अत एव पाणिनि ने केवल परस्मैपदी पढ़ा । ८. महाभाष्य ५।१ । २१ षर कैयट लिखता है
प्रापिशलकाशकृत्स्नयोस्त्वग्रन्थ इति वचनात् ।। अर्थात् -प्रापिशल और काशकृत्स्न-व्याकरण में पाणिनीय १५ शताच्च ठन्यतावशते (५।१ । २१) सूत्र के स्थान में शताच्च ठन्यतावनथे पाठ था।
आपिशलि पाणिनि से प्राचीन है । अतः उसके साथ स्मृत काशकृत्स्न भी पाणिनि से प्राचीन होगा। इतना ही नहीं, यदि यह माना जाये कि पाणिनि ने प्रापिशलि के सूत्रपाठ में कुछ अनौचित्य समझ- २० कर अग्रन्थे का प्रशते रूप में परिष्कार किया है, तो निश्चय हो मानना होगा कि आपिशलि के समान अग्रन्थे पढ़ने वाला काशकृत्स्न भी पाणिनि से पूर्वभावी है। यह नहीं हो सकता कि पाणिनि प्रापिशल-सूत्र का परिष्कार करे और पाणिनि से उत्तरवर्ती (जैसा कुछ व्यक्ति मानते हैं) काशकृत्स्न पाणिनि के परिष्कार को छोड़ कर पुनः २५ आपिशलि के अपरिष्कृत अंश को स्वीकार कर ले।
६. भर्तृहरि के तदहमिति नारब्धं सूत्रं व्याकरणान्तरे वचन की व्याख्या करता हुआ हेलाराज लिखता है
प्रापिशलाः काशकृत्स्नाश्च सूत्रमेतन्नाधीयते । वाक्यपदीय, काण्ड ३, पृष्ठ ७१४ (काशी-संस्क०) ।
३.