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पाणिनोय अष्टाध्यायो में स्मृत प्राचार्य
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स्फोट का प्रतिपादन करता है । इस दृष्टि से निरुक्त में प्रदर्शित दोष अखण्ड वाक्य स्फोट में भी तदवस्थ ही रहते हैं । अतः भर्तृहरि के मतानुसार निरुक्त टीकाकारों की व्याख्या अशुद्ध जाननी चाहिये । भर्तृहरि का एतद्विषयक वचन इस प्रकार है
वाक्यस्य बुद्धौ नित्यत्वमर्थयोगं च शाश्वतम् ।। दृष्ट्वा चतुष्ट्वं नास्तीति वार्ताक्षौदुम्बरायणौ ॥
वाक्य० २।३४३॥ इस सिद्धान्त का विशद प्रतिपादन प्रथमवार डा० सत्यकाम वर्मा ने अपने 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' नामक ग्रन्थ में (पृष्ठ ११९-१२२) किया है ।
स्फोट-तत्व यदि हरदत्त की प्रथम व्याख्या ठीक हो तो निश्चय ही वैयाकरणों के स्फोटतत्त्व का उपज्ञाता यही आचार्य होगा स्फोटवाद वैयाकरणों का प्रधानवाद है । उनके शब्द नित्यत्ववाद का यही आधार है। महाभाष्यकार पतञ्जलि के लेखानुसार स्फोट द्रव्य है, ध्वनि उस का १५ गुण है।' नैयायिक और मीमांसक स्फोटवाद का खण्डन करते हैं। स्फोटवाद अत्यन्त प्राचीन है। भागवत पुराण १७१७५।६ में भी स्फोट का उल्लेख मिलता है।
भरद्वाजीय विमानशास्त्र में स्फोटायन प्राचार्य का मत निर्दिष्ट होने से हमें इसमें सन्देह होता था कि स्फोटायन नाम का कारण वैया- २० करणीय स्फोट पदार्थ है । हमारा विचार था कि यह नाम विमान के किसी विशिष्ट प्रकार के स्फोट से उत्पन्न अयन=गति का उपज्ञाता होने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा। अर्थात् उसने विमानों की गति विशेष के लिए किसी विशिष्ट प्रकार के स्फोट अथवा स्फोटक द्रव्यों का प्रथमतः प्रयोग किया होगा।
२५ यह हमारा अनुमानमात्र था, परन्तु अब भर्तृहरि के ऊपर उद्धृत वचन से यह स्पष्ट सा हो गया है कि प्राचार्य स्फोटायन सम्भवतः शाब्दिकों में प्रसिद्ध स्फोट तत्त्व का आद्य उपज्ञाता था।
१. एवं तर्हि स्फोट: शब्दः, ध्वनिः शब्दगुणः । १ । १ । ७० ॥