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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
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नाटयशास्त्र का पाठ लघुपाठ है । बड़ोदा के संस्करण में कहीं-कहीं [ ] कोष्ठान्तर्गत मध्य अथवा वृद्धपाठ भी निर्दिष्ट हैं ।
डा० सत्यकाम वर्मा को अष्टाध्यायी के लघु और बृहत् पाठ पर आपत्ति है। उनका कहना है कि - क्या अष्टाध्यायी का बृहत्पाठ स्वीकार करते ही पातञ्जल महाभाष्य का अधिकांश विचार निरर्थक ५ नहीं रह जाता ? और सब से बड़ी बात तो यह है कि जो बात पतञ्जलि और कात्यायन सदृश पाणिनि के निकटवर्ती वैयाकरणों को ज्ञात नहीं थी, उसे उन से भी आठ नौ सदी बाद आनेवाले वृत्ति - कार जयादित्य वा वामन कैसे जाने पाये ?' (पृष्ठ १४५) ।
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इस पर हमें यही कहना है कि डा० सत्यकाम वर्मा का लेख उन १० के स्वलेख के ही विपरीत है । वे इस से पूर्व पृष्ठ १४४ पर लिखते हैं- " इन शिष्यों में से कुछ ने पहले सूत्रपाठ को पढ़ा और प्रामाणिक माना होगा. जबकि कुछ ने दूसरे को ।" यदि इसे स्वीकार कर लिया जाये, तो उनकी पूर्व आपत्ति स्वयं समाहित हो जाती है । कात्यायन उस सम्प्रदाय के अनुयायी थे, जिस को हम लघुपाठ कहते हैं । उन्होंने उसी पाठ पर अपने वार्तिक लिखे । भाष्यकार ने कात्यायन के वार्तिकपाठ पर ही भाष्य रचा। बृहत्पाठ अन्य परम्परा में सुरक्षित रहा । उस पर जयादित्य वा वामन ने अपनी वृत्ति लिखी । हम लिख चुके हैं कि दाक्षिणात्य और औदिच्यपाठ लघुपाठ हैं । कात्यायन दाक्षिणात्य है और पतञ्जलि प्रौदीच्य ( कश्मीरी ) । अतः उनकी परम्परा में २० लघुपाठ ही प्रचलित था ।
पाणिनीय शास्त्र के नाम
पाणिनीय शास्त्र के चार नाम उपलब्ध होते हैं - अष्टक, अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन और वृत्तिसूत्र ।
अष्टक, श्रष्टाध्यायी - पाणिनीय ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त २५ है, अतः उसके ये नाम प्रसिद्ध हुए । इनमें अष्टाध्यायी नाम सर्वलोकविश्रुत है ।
शब्दानुशासन - यह नाम महाभाष्य के प्रारम्भ में मिलता है । वहां लिखा है - प्रथेति शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते । शब्दानुशासनं नाम शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् ।
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